जाने क्यू कहते हैं शिव जी को चंद्रर्काग्निविलोचन अर्थात् त्रिनेत्र और कृत्तिवासा

सावन का महीना चल रहा है. इस महीने में शिव जी का पूजन किया जाता है. ऐसे में आज सावन के चौथे सोमवार को हम आपको बताने जा रहे हैं शिव जी को क्यों कहते हैं “चंद्रर्काग्निविलोचन” अर्थात् “त्रिनेत्र” और “कृत्तिवासा”. आइए जानते हैं.

“चंद्रर्काग्निविलोचन” अर्थात् “त्रिनेत्र” रूप की कथा- एक बार भगवन शांत रूप से बैठे हुए थे. हिमाद्रितनया भगवती पार्वती ने विनोदवश हो पीछे से उनके दोनों नेत्र मूँद लिए पर वो नेत्र तो शिवरूप त्रैलोक्य के चन्द्र सूर्य थे. नेत्रों के बंद होते ही विश्व भर में अंधेरा छा गया. संसार अकुलाने लगा. तब शिव जी के ललाट से तीसरा नेत्र प्रकट हुआ. उसके प्रकट होते ही दसों दिशाएं प्रकाशित हो गई. अन्धकार तो हटा ही पर हिमालय जैसे पर्वत भी जलने लगे. यह देख पार्वती जी घबरा कर हाथ जोड़ स्तुति करने लगीं. तब शिवजी प्रसन्न हुए और संसार की स्थिति यथापूर्व बना दी. तभी से वे “चंद्रर्काग्निविलोचन” अर्थात् “त्रिनेत्र” कहलाने लगे.

“कृत्तिवासा” रूप की कथा- जिस समय महादेव पार्वती को रत्नेश्वर का महात्म्य सुना रहे थे उस समय महिषासुर का पुत्र गजासुर अपने बल के मद में उन्मत्त हो शिवगणों को कष्ट देता हुआ शिव के समीप पहुंच गया. उसे ब्रह्मा का वर था कि कंदर्प के वश होने वाले किसी से भी उसकी मृत्यु नहीं होगी. शिव ने तो कंदर्प के दर्प का नाश किया था. सो उन्होंने इसका भी शरीर त्रिशूल में टांग कर आकाश में लटका दिया. उसने वहीं से भोले की स्तुति शुरू कर दी. शिव प्रसन्न हुए वर मांगने को कहा. इस पर गजासुर ने विनती की कि हे दिगंबर कृपा कर के मेरे चर्म को धारण कीजिए और अपना नाम “कृत्तिवासा” रखिये और भोले ने ‘एवमस्तु’ कहा.

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