यदि आत्मज्ञान प्राप्त हो जाए तो इसे लोगों में बांटें

german_temple_lumbini_17_12_2015महाकश्यप भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य थे। बुद्ध उनकी त्याग भावना तथा ज्ञान से संतुष्ट होकर बोले- ‘वत्स, तुम आत्मज्ञान से पूरी तरह मंडित हो। तुम्हारे पास वह सब है, जो मेरे पास है। अब जाओ और सत्संदेश का जगह-जगह प्रचार-प्रसार करो।’

महाकश्यप ने ये शब्द सुने, तो वे मायूस हो गए। वह बोले, ‘गुरुदेव यदि मुझे पहले से पता होता कि आत्मज्ञान का ज्ञान होने के बाद आपसे दूर जाना पड़ता, तो मैं इसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न नहीं करता।

मुझे आपके सानिध्य में रहने में, आपके चरण स्पर्श करने में जो परमानंद की प्राप्ति होती है। उससे मैं वंचित नहीं होना चाहता हूं। मैं अपने आत्मज्ञान को भुला देना चाहता हूं।’

भगवान बुद्ध ने अपने इस अनूठे शिष्य को गले लगा लिया। उन्होनें उसे समझाया, ‘तुम सदविचारों व ज्ञान का प्रचार करते समय जहां भी रहोगे, मुझे अपने निकट देखोगे।मेरा हाथ हमेशा सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।’ इस बात को सुनकर महाकश्यप अपने आत्मज्ञान के प्रकाश को मिटाने के लिए अभियान पर चल दिया।

संक्षेप में

हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति तभी हो सकती है। जब हम मोह, माया और दूसरे गुणों पर आसक्त न होते हुए पूरी तरह ईश्वर और कर्म पर ध्यान दें।

आत्मज्ञान होने पर इसे स्वयं तक सीमित रखना बिल्कुल भी श्रेयस्कर नहीं है। इसे और लोगों में बांटे इसीलिए कहा भी गया है कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है।

 
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