जानिए ब्रह्मांड के पहले ‘पत्रकार’ की रोचक कहानी

narada-vyasa_21_01_2016श्रीमद्भागवद् पुराण में देवर्षि नारद को आध्यात्मिक ज्ञानी कहा गया है। नारद जी देवी-देवताओं, दैत्य, राजाओं सभी को सूचनाओं का आदान प्रदान करते थे। इसीलिए उन्हें यानी देवर्षि नारद जी को ब्रह्मांड का सबसे पहला पत्रकार माना जाता है।

भगवान विष्णु के परम भक्त नारद जी सृष्टि के रचियता ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। नारद पुराण में नारद जी के जीवन के बारे में संपूर्ण वर्णन है, यह ग्रन्थ के पूर्वखंड में 125 अध्याय और उत्तरखण्ड में 182 अध्याय हैं। श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार नारद जी का जन्म ब्रह्मा जी की जंघा से हुआ था। इन्हें वेदों के संदेशवाहक कहा गया है। मान्यता है कि वीणा का आविष्कार नारद जी ने ही किया था।

नाम एक, नाम का उल्लेख अनेक

अथर्ववेद में लिखा है कि नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं। वहीं ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ का कथन है कि हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे। ठीक इसी तरह मैत्रायणी संहिता में लिखा है नारद नाम के एक आचार्य हुए हैं। सामविधान ब्राह्मण ग्रंथ में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद जी का वर्णन मिलता है।

छान्दोग्यपनिषद् में नारद का नाम सनत्कुमारों के साथ लिखा गया है। महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण मिलता है। उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया।

अथ श्री नारद जन्म कथा

नारद जी के बारे में उनके पुनर्जन्म की कथा प्रचलित है। श्रीमद्भागवद् पुराण में इस कथा का उल्लेख मिलता है। कहते हैं नारद जी, पूर्व जन्म में ‘उपबर्हण’ नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएं और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्सृष्टा की आराधना कर रहे थे, तब उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वहां आए। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का शाप दे दिया।

शाप के करण वह पृथ्वी पर ‘शूद्रा दासी’ का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पांच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाते रहे, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया।

शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गई। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े।

एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठे थे कि उनके हृदय में भगवान की एक झलक दिखाई दी। उनके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई, ‘हे पुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।’

समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतरित हुए।

 
 
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