नवरात्रि में गायत्री मंजरी का पाठ करने से होगी हर मनोकामना पूरी…

कहा जाता है जो भी साधक नवरात्र काल में गायत्री मंजरी का पाठ हमेशा करता है उसे तीनों लोकों के सुखों की प्राप्ति हटी है और इस पाठ को करने से लाभ भी होता है. इसी के साथ गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ में भी यह उल्लेख आता की इस गायत्री मंजरी का पाठ श्रद्धा पूर्वक करने पर साधक की आध्यात्मिक, भौतिक, सांसारिक सभी तरह की इच्छाएं तो पूरी होती है और इसी के साथ वह ब्रह्म को भी प्राप्त कर लेता हैं और उसे सभी जगह से केवल लाभ मिलता है तो आइए जानते हैं वह अथ गायत्री मंजरी पाठ.

1- एकदा तु महादेवं कैलाश गिरि संस्थितम् ।
पप्रच्छ पार्वती देवी वन्द्या विबुधमण्डलैः ॥
एक बार कैलाश पर्वत पर विराजमान देवताओं के पूज्य महादेव जी से वन्दनीया पार्वती ने पूछा-

2- कतमं योगमासीनो योगेश त्वमुपाससे । येन हि परमां सिद्धिं प्राप्नुवान् जगदीश्वर ॥
हे संसार के स्वामी योगेश्वर महादेव! आप किसके योग की उपासना करते हैं जिससे आप परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं ?

3- श्रुत्वा तु पार्वती वाचं मधुसिक्तां श्रुतिप्रियाम् ।
समुवाच महादेवो विश्वकल्याणकारकः ॥
पार्वती की कर्णप्रिय एवं मधुर वाणी को सुनकर विश्व का कल्याण करने वाले महादेव जी बोले-

4- महद्रहस्यं तद्गुप्तं यत्तु पृष्टं त्वया प्रिये।
तथापि कथयिष्यामि स्नेहात्तत्त्वामहं समम् ॥
हे पार्वती! तुमने बहुत ही गुप्त और गूढ़ रहस्य के विषय को पूछा है, फिर भी स्नेह के कारण वह सारा रहस्य मैं तुमसे कहूँगा.

5- गायत्री वेदमातास्ति साद्या शक्तिर्मता भुवि।
जगतां जननी चैव तामुपासेऽहमेव हि ॥
गायत्री देवमाता है, पृथ्वी पर वह आद्यशक्ति कहलाती है और वह ही संसार की माता है। मैं उसी की उपासना करता हूँ.

6- यौगिकानां समस्तानां साधनानां तु हे प्रिये ।
गायत्र्येव मता लोके मूलाधारो विदांवरैः ॥
हे प्रिये! समस्त यौगिक साधनाओं का मूलाधार विद्वानों ने गायत्री को ही माना है.

7- अति रहस्यमय्येषा गायत्री तु दशभुजा ।
लोकेऽति राजते पंच धारयन्ति मुखानि तु ॥
दश भुजाओं वाली अत्यन्त रहस्यमयी यह गायत्री संसार में पाँच मुखों को धारण करती हुई अत्यन्त शोभित होती है.

8- अति गूढानि संश्रुत्य वचनानि शिवस्य च ।
अति संवृद्ध जिज्ञासा शिवमूचे तु पार्वती ॥
शिव के अत्यन्त गूढ़ वचनों को सुनकर अतिशय जिज्ञासा वाली पार्वती ने शिव से पूछा-

9- पंचास्य दशबाहूनामेतेषां प्राणवल्लभ ।
कृत्वा कृपां कृपालो त्वं किं रहस्यं तु मे वद ॥
हे प्राणवल्लभ! हे कृपालु! कृपा करके इन पाँच मुख और दश भुजाओं का रहस्य मुझे बतलाइए.

10- श्रुत्वा त्वेतन्महादेवः पार्वती वचनं मृदु।
तस्याः शंकामपाकुर्वन् प्रत्युवाच निजां प्रियाम् ॥
पार्वती के इन कोमल वचनों को सुनकर महादेव जी पार्वती की शंका का समाधान करते हुए बोले-

11- गायत्र्यास्तु महाशक्तिर्विद्यते या हि भूतले।
अनन्यभावतोह्यस्मिन्नोतप्रोतोऽस्ति चात्मनि ॥
पृथ्वी पर गायत्री की जो महान शक्ति है, वह इस आत्मा में अनन्य भाव से ओत- प्रोत हो रही है.

12- बिभर्ति पञ्चावरणान् जीवः कोशास्तु ते मताः ।
मुखानि पञ्च गायत्र्यास्तानेव वेद पार्वती ॥
जीव पंच आवरणों को धारण करता है, वे ही कोश कहलाते हैं। हे पार्वती! उन्हीं को गायत्री के पाँच मुख कहते हैं.

13- विज्ञानमयान्नमय प्राणमय मनोमयाः ।
तथानन्दमयश्चैव पञ्चकोशाः प्रकीर्तिताः ॥
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये पाँच कोश कहलाते हैं.

14- एष्वेव कोशकोशेषु ह्यनन्ता ऋद्धि सिद्धयः।
गुप्ता आसाद्य या जीवो धन्यत्वमधिगच्छति ॥
इन्हीं कोश रूपी भण्डारों में अनन्त ऋद्धि- सिद्धियाँ छिपी हुई हैं, जिन्हें पाकर जीव धन्य हो जाता है.

15- यस्तु योगीश्वरो ह्येतान् पञ्चकोशान्नु वेधते।
स भवसागरं तीर्त्वा बन्धनेभ्यो विमुच्यते ॥
जो योगी इन पाँच कोशों को बेधता है, वह भव- सागर को पार कर बन्धनों से छूट जाता है.

16- गुप्तं रहस्यमेतेषां कोशाणां योऽवगच्छति ।
परमां गतिमाप्नोति स एव नात्र संशयः ॥
जो इन कोशों के गुप्त रहस्य को जानता है, वह निश्चय ही परम गति को प्राप्त करता है.

17- लोकानां तु शरीराणि ह्यन्नादेव भवन्ति नु।
उपत्यकासु स्वास्थ्यं च निर्भरं वर्तते सदा ॥
मनुष्यों के शरीर अन्न से बनते हैं। उपत्यकाओं पर स्वास्थ्य निर्भर रहता है.

18- आसनेनोपवासेन तत्त्वशुद्ध्या तपस्यया।
चैवान्नमयकोशस्य संशुद्धिरभिजायते॥
आसन, उपवास, तत्त्वशुद्धि और तपस्या से अन्नमय कोश की शुद्धि होती है.

19- ऐश्वर्यं पुरुषार्थश्च तेज ओजो यशस्तथा ।
प्राणशक्त्या तु वर्धन्ते लोकानामित्यसंशयम् ॥
प्राणशक्ति से मनुष्य का ऐश्वर्य, पुरुषार्थ, तेज, ओज एवं यश निश्चय ही बढ़ते हैं.

20- पञ्चभिस्तु महाप्राणैर्लघुप्राणैश्च पञ्चभिः।
एतैः प्राणमयः कोशो जातो दशभिरुत्तमः॥
पाँच महाप्राण और पाँच लघुप्राण, इन दश से उत्तम प्राणमय कोश बना है.

21- बन्धेन मुद्रया चैव प्राणायामेन चैव हि।
एष प्राणमयः कोशो यतमानं तु सिद्ध्यति ॥
बन्ध, मुद्रा और प्राणायाम द्वारा यत्नशील पुरुष को यह प्राणमय कोश सिद्ध होता है.

22- चेतनाया हि केन्द्रन्तु मनुष्याणां मनोमतम्।
जायते महतीत्वन्तः शक्तिस्तस्मिन् वशंगते ॥
मनुष्यों में चेतना का केन्द्र मन माना गया है. उसके वश में होने से महान अन्तःशक्ति पैदा होती है.

23- ध्यान त्राटक तन्मात्रा जपानां साधनैर्ननु।
भवत्युज्ज्वलः कोशः पार्वत्येष मनोमयः ॥
ध्यान, त्राटक, तन्मात्रा और जप इनकी साधना करने से हे पार्वती! मनोमय कोश अत्यन्त उज्ज्वल हो जाता है, यह निश्चय है.

24- यथावत् पूर्णतो ज्ञानं संसारस्य च स्वस्य च।
नूनमित्येव विज्ञानं प्रोक्तं विज्ञानवेत्तृभिः ॥
संसार का और अपना ठीक- ठीक और पूरा- पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञानवेत्ताओं ने विज्ञान कहा है.

25- साधना सोऽहमित्येषा तथा वात्मानुभूतयः।
स्वराणां संयमश्चैव ग्रन्थिभेदस्तथैव च ॥
एषां संसिद्धिभिर्नूनं यतमानस्य ह्यात्मनि।
नु विज्ञानमयः कोशः प्रिये याति प्रबुद्धताम् ॥
सोऽहं की साधना, आत्मानुभूति, स्वरों का संयम और ग्रन्थि- भेद, इनकी सिद्धि से यत्नशील की आत्मा में हे प्रिये! विज्ञानमय कोश प्रबुद्ध होता है.

26- आनन्दावरणोन्नत्यात्यन्त शान्ति प्रदायिका।
तुरीयावस्थितिर्लोके साधकं त्वधिगच्छति ॥
आनन्द- आवरण (आनन्दमय कोश) की उन्नति से अत्यन्त शान्ति को देने वाली तुरीयावस्था साधक को संसार में प्राप्त होती है.

27- नाद विन्दु कलानां तु पूर्ण साधनया खलु।
नन्वानन्दमयः कोशः साधके हि प्रबुद्ध्यते ॥
नाद, बिन्दु और कला की पूर्ण साधना से साधक में आनन्दमय कोश जाग्रत् होता है.

28- भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधैः।
लोक आश्रयणेनामूं सर्वमेवाधिगच्छति ॥
विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है। इसका आश्रय लेकर सब कुछ प्राप्त कर लिया जाता है.

29- पञ्चास्या यास्तु गायत्र्याः विद्यां यस्त्ववगच्छति।
पञ्चतत्त्व प्रपञ्चात्तु स नूनं हि प्रमुच्यते ॥
पाँच मुख वाली गायत्री विद्या को जो जानता है, वह निश्चय ही पञ्चतत्त्वों के प्रपञ्च से छूट जाता है.

30- दशभुजास्तु गायत्र्याः प्रसिद्धा भुवनेषु याः।
पञ्चशूल महाशूलान्येताः संकेतयन्ति हि ॥
संसार में गायत्री की दश भुजाएँ प्रसिद्ध हैं, ये भुजाएँ पाँच शूल और पाँच महाशूलों की ओर संकेत करती हैं.

31- दशभुजानामेतासां यो रहस्यं तु वेत्ति सः।
त्रासं शूलमहाशूलानां ना नैवावगच्छति ॥
जो मनुष्य इन दश भुजाओं के रहस्य को जानता है, वह शूल और महाशूल के भय को नहीं पाता.

32- दृष्टिस्तु दोषसंयुक्ता परेषामवलम्बनम्।
भयञ्च क्षुद्रताऽसावधानता स्वार्थयुक्तता ॥
अविवेकस्तथावेशस्तृष्णालस्यं तथैव च।
एतानि दश शूलानि शूलदानि भवन्ति हि ।।
दोषयुक्त दृष्टि, परावलम्बन, भय, क्षुद्रता, असावधानी, स्वार्थपरता, अविवेक, क्रोध, आलस्य, तृष्णा-ये दुःखदायी दश शूल हैं.

33- निजैर्दशभुजैर्नूनं शूलान्येतानि तु दश।
संहरते हि गायत्री लोककल्याणकारिणी ॥
संसार का कल्याण करने वाली गायत्री अपनी दश भुजाओं से इन दश शूलों का संहार करती है.

34- कलौ युगे मनुष्याणां शरीराणीति पार्वती।
पृथ्वीतत्त्व प्रधानानि जानास्येव भवन्ति हि ॥
हे पार्वती! कलियुग के मनुष्यों के शरीर पृथ्वी तत्त्व प्रधान होते हैं, यह तो तुम जानती ही हो.

35- सूक्ष्मतत्त्व प्रधानान्ययुगोद्भूत नृणामतः।
सिद्धीनां तपसामेते न भवन्त्यधिकारिणः ॥
इसलिए अन्य युग में पैदा हुए सूक्ष्मतत्त्व प्रधान मनुष्यों की सिद्धि और तप के ये अधिकारी नहीं होते.

36- पञ्चाङ्गयोग संसिद्ध्या गायत्र्यास्तु तथापि ते।
तद्युगानां सर्वश्रेष्ठां सिद्धिं सम्प्राप्नुवन्ति हि ॥
फिर भी वे गायत्री के पञ्चाङ्ग योग की सिद्धि द्वारा उन गुणों की सर्वश्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करते हैं.

37- गायत्र्या वाममार्गीयं ज्ञेयमत्युच्चसाधकैः।
उग्रं प्रचण्डमत्यन्तं वर्तते तन्त्र साधनम् ॥
उत्कृष्ट साधकों द्वारा जानने योग्य गायत्री का वाममार्गी तन्त्र साधन अत्यन्त उग्र और प्रचण्ड है.

38- अतएव तु तद्गुप्तं रक्षितं हि विचक्षणैः।
स्याद्यतो दुरुपयोगो न कुपात्रैः कथंचन ॥
इसलिए विद्वानों ने इसे गुप्त रखा है, जिससे कुपात्रों द्वारा उसका किसी प्रकार दुरुपयोग न हो.

39- गुरुणैव प्रिये विद्या तत्त्वं हृदि प्रकाश्यते।
गुरुं विना तु सा विद्या सर्वथा निष्फला भवेत् ॥
हे प्रिये! विद्या का तत्त्व गुरु के द्वारा ही हृदय में प्रकाशित किया जाता है। बिना गुरु के वह विद्या निष्फल हो जाती है.

40- गायत्री तु पराविद्या तत्फलावाप्तये गुरुः।
साधकेन विधातव्यो गायत्रीतत्त्व पंडितः ॥
गायत्री परा विद्या है, अतः उसके फल की प्राप्ति के लिए साधक को ऐसा गुरु करना चाहिए जो गायत्री तत्त्व का ज्ञाता हो.

41- गायत्रीं यो विजानाति सर्वं जानाति स ननु।
जानातीमां न यस्तस्य सर्वा विद्यास्तु निष्फलाः ॥
जो गायत्री को जानता है, वह सब कुछ जानता है। जो इसको नहीं जानता, उसकी सब विद्या निष्फल है.

42- गायत्रेवतपोयोगः साधनं ध्यानमुच्यते।
सिद्धीनां सा मता माता नातः किंचित् बृहत्तरम् ॥
गायत्री ही तप है, योग है, साधन है, ध्यान है और वह ही सिद्धियों की माता मानी गई है। इस गायत्री से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है ।

43- गायत्री साधना लोके न कस्यापि कदापि हि।
याति निष्फलतामेतत् धु्रवं सत्यं हि भूतले ।।
कभी भी किसी की गायत्री साधना संसार में निष्फल नहीं जाती, यह पृथ्वी पर ध्रुव सत्य है.

44- गुप्तं मुक्तं रहस्यं यत् पार्वति त्वां पतिव्रताम्।
प्राप्स्यन्ति परमां सिद्धिं ज्ञास्यन्त्येतत् तु ये जनाः ॥
हे परम पतिव्रता पार्वती! मैंने जो यह गुप्त रहस्य कहा है, जो लोग इसे जानेंगे, वे परम सिद्धि को प्राप्त होंगे.

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