परशुरामजी का उल्लेख बहुत से ग्रंथों में किया गया

परशुराम रामायण काल के मुनी थे। भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का जन्म हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए। आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीकके आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यपजीसे विधिवत अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ। तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंगस्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरूभी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्पान्त पर्यंत तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्रम्भी लिखा। वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी-व्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि-पत्नी अनसूया,अगस्त्य-पत्नी लोपामुद्राव प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से नारी-जागृति-अभियान का विराट संचालन भी किया। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर शस्त्रविद्या प्रदान करना शेष है।
परशुरामजी का उल्लेख बहुत से ग्रंथों में किया गया है – रामायण, महाभारत, भागवत पुराण, और कल्कि पुराण इत्यादि में। वे अहंकारी और धृष्ठ हैहय-क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है की भारत के अधिकांश भाग और ग्राम उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी संतानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं किया करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाए रखना था। वे चाहते थे की यह सारी सृष्टि पशु-पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल औए समूचि प्रक्र्ति के लिए जीवंत रहे। उनका कहना था की राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकी अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है। यह भी ज्ञात है कि परशुरामजिइ नें अधिकांश विद्याएं अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीखीं थीं (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वह पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक की कई खूंखार वनीय पशु भी उन्के स्पर्श मात्र से उनके मित्र बन जाते थे। उन्होंने सैन्यशिक्षा के ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण।
पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। “इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। “समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।
श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी। अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।
कथानक है कि हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। कुपित परशुरामजी ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के दस हजार पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में ध्यानस्थ जमदग्निका वध कर डाला। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। क्षुब्ध परशुरामजी ने प्रतिशोधवश महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया, इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और हैहयों के रुधिर से स्थलंतपंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। तब उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ कर सप्तद्वीपयुक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और इंद्र के समक्ष शस्त्र त्यागकर सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेंद्र पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुंच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रिय कुलद्रोही बताते हुए बहुत क्रोधित हुए और फिर वैष्णवी शक्ति का हरण होने पर संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा-याचना कर तपस्या के निमित्त वन-गमन कर गए वाल्मीकी रामायण में दशरथनंदन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया, और परशुराम ने श्रीरामचंद्रजी की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविंदों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की। भीष्म द्वारा स्वीकार ना किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुरामजी के पास आई। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा और उनके बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला| किंतु परशुराम उन्हें हरा ना सके। परशुराम अपने जीवनभर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किंतु दुर्भाग्यवश वे तब तक सबकुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा| तब चतुर द्रोणाचर्य ने कहा की मैं आपके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके मंत्रो समेत चाहता हूँ, जब भी उनकी आवश्यक्ता हो। परशुरामजी ने कहा ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।
परशुरामजी कर्ण के भी गुरु थे। उन्होने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षा दी और ब्र्ह्मास्त्र चलाना भी सीखाया। लेकिन कर्ण एक सुत पुत्र था और फीर भि ये जानते हुए भि के परशुरामजी सिर्फ ब्राह्मणों को अपनी विधा दान करते है कर्ण फरेब करके परशुरामजी से विधा लेने पहोच गया। परशुरामजी ने उसे ब्राह्मण समजकर उसे बहुतसारी विधा सिखाइ , लेकिन एक दिन जब परशुरामजी एक पेड के निचे कर्ण की गोदी मे सर रखके सो रहे थे , तब एक भौरा आकर कर्ण के पैर पर काट ने लगा , अपने गुरुजी कि निद मे कोइ अवरोध ना आये इसलिये वो भौरे को सेहता रहा, भौरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काट रहा था , भौरे के काट ने के कारण कर्ण का खुन बहने लगा , वो खुन बहेता हुवा परशुरामजी के पैरो के पास पहुचा , परशुरामजी की नीन्द खुल गइ और वे इस खुन को तुरन्त परख गए इस घटना के कारण कर्ण जैसे महायोद्धा को अपनी अस्त्र विद्या का लाभ नहीं मिल पाया। कर्ण के मिथ्याभाषण पर उसे ये श्राप दे दिया की जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यक्ता होगी, तब वह उसके काम नहीं आयेगी। वर्षों बाद महाभारत के युद्ध में एक रात कर्ण ने अपने गुरु का स्मरण किया और उनसे उनके दिये श्राप को केवल एक दिन के लिये वापस लेने का आग्रह किया। किंतु धर्म की विजय के लिये गुरु परशुराम ने कर्ण को ये श्राप स्वीकार करने के लिये कहा, क्युंकि कर्ण अधर्म के प्रतीक दुर्योधन की ओर से युद्ध कर रहा था, और परिणाम स्वरुप अगले दिन के युद्ध में कर्ण को अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त होना पडा़।
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