जरासंध और कृष्ण, जानिए दोनों के बीच की 5 टसल

1.कंस का वध होने के बाद श्रीकृष्ण को मारने के लिए जरासंध ने मथुरा शहर को चारों ओर से घेर लिया। बलराम और श्रीकृष्ण ने उसकी विशालकाय सेना के साथ घोर युद्ध किया और अंतत: जरासंध की परायज हुई। जरासंध को बंधक बना लिया गया लेकिन बलराम को जरासंध का वध करने के लिए श्रीकृष्ण ने रोक दिया और उस मुक्त कर छोड़ दिया। ऐसा श्रीकृष्ण ने कई बार किया। 

2.कहते हैं कि श्रीकृष्ण को मारने के लिए जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया। इस नीति के तहत श्रीकृष्‍ण रण की भूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा। उसने जैसे ही आंखें खोली और इधर-उधर देखने लगे, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे। 

3.जरासंध का मित्र शिशुपाल था। शिशुपाल रुक्मिणी से शादी करना चाहता था। रुक्मिणी का भाई रुक्मी भी यही चाहता था। रुक्मी और शिशुपाल मित्र थे। शिशुपाल और रुक्मी जानते थे कि रुक्मी श्रीकृष्ण से विवाह करना चाहती है। लेकिन रुक्मी ने शिशुपाल और रुक्मणी ने स्वयंवर की तैयारी कर ली थी। जरासंध बिहार से इतनी दूर गुजरात सिर्फ यह पक्का करने आया कि स्वयंवर में कोई गड़बड़ न हो। मगर वहां उसकी नाक के नीचे से श्रीकृष्ण रुक्मिणी को भगा कर ले गए। जरासंध को जब यह पता चला तो वह रुक्मणी को लेने के लिए दौड़ा। जब उसने गोमांतक में कृष्ण को पकड़ने की कोशिश की तो कृष्ण ने उसे हरा दिया और उसे जीवनदान देते हुए शर्मिंदा कर दिया। जरासंध जैसे योद्धा के लिए इससे बदतर कुछ नहीं था कि एक ग्वाला उसे जीवनदान दे। इससे तो अच्छा था कि वह मर जाए।

 4.द्रौपदी स्वयंवर में कई योद्धा शामिल हुए थे। उसमें जरासंध भी था। जरासंध ने अपने पौत्र की शादी द्रौपदी से करवाने की युक्ति सोची। जरासंध चाहता था कि यह प्रतियोगिता में जीत गया तो अपने पौत्र का विवाह करवा दूंगा और हार गया तो में द्रौपदी का अपहरण कर उसका विवाह करवा दूंगा। यह सोचकर वह स्वयंवर में अपनी सेना लेकर पहुंचा। श्रीकृष्ण इस हालात को समझ गए थे।

 जरासंध के शिविर में बहुत सख्त पहरा था। लेकिन आधी रात को श्रीकृष्ण अपना सिर ढंककर उसके शिविर में पहुंचे। पहरेदारों ने रोका तो उन्होंने कहा कि यदि नहीं मिलने दिया तो अनर्थ हो जाएगा। सब मारे जाएंगे और इसके दोषी तुम ही होंगे। ऐसा सुनकर पहरेदार ने पहरा प्रमुख को बुलाया। पहरा प्रमुख की जिम्मेदारी जरासंध के एक पौत्र के पास था। वह आया तब उसने आकर पूछा, ‘तुम कौन हो? तब श्रीकृष्ण ने अपने चेहरे से कपड़ा हटाया और बोला, ‘मैं वासुदेव कृष्ण हूं।’ जरासंध का पौत्र हक्का-बक्का रह गया। कृष्ण तो उनका कट्टर दुश्मन था, जो निहत्था उसके सामने खड़ा था। तब उसने पूछा, ‘तुम क्या चाहते हो?’

कृष्ण बोले, ‘मैं जरासंध से बात करना चाहता हूं। अगर तुम अभी उसे नहीं जगाते, तो बस एक संदेश दे दो कि मैं यहां उसका जीवन बचाने आया हूं। अगर मैं अभी उससे नहीं मिलता, तो मैं फिर कुछ नहीं कर पाऊंगा। अगर फिर भी तुम उसे नहीं जगाना चाहते, तो मैं वापस चला जाता हूं। सब कुछ तुम्हारे ऊपर है।’ यह सुनकर वह जरासंध के पास गया और उसे जगाया। उसने सूचना दी गई, ‘कृष्ण आपसे मिलने आए हैं।’ जरासंध को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ, ‘क्या? वह आधी रात को मेरे शिविर में मुझसे मिलने आया है? उसकी इतनी हिम्मत?’ उसके दिमाग में तुरंत आया, ‘क्या हम अभी उसे मार डालें?’ फिर उसके पौत्र ने उसे बताया कि कृष्ण ने उससे क्या कहा।

 कृष्ण अंदर आए तो जरासंध बोला, क्या बात करने आए हो? कृष्ण ने समझाया, ‘आप द्रौपदी के स्वयंवर में आए हैं। हर किसी को पता है कि द्रौपदी से विवाह का मतलब द्रुपद से संबंध बनाना है। द्रुपद से संबंध का मतलब एक विशाल सेना से संबंध है। इसी वजह से इतने सारे राजा यहां जुटे हैं। सबसे बढ़कर द्रुपद की एक नेक इंसान के रूप में बहुत इज्जत है, जिससे आपकी प्रतिष्ठा और ताकत बढ़ सकती है। इसलिए आपके यहां आने का मकसद मेरे सामने बिल्कुल साफ है। आपका पौत्र यकीनन तीरंदाजी का इम्तिहान पास नहीं कर सकता, मगर आप कर सकते हैं।’ जरासंध बोला, ‘बिल्कुल। मैं जीतूंगा।’ कृष्ण बोले, ‘कल्पना कीजिए। अगर इतने सारे पुत्रों और पौत्रों वाले 75 वर्षीय आप अगर एक 18 वर्षीय युवती के लिए इस मुकाबले में शामिल होते हैं, तो आप उपहास के पात्र बन जाएंगे। चाहे आप यह मुकाबला जीत भी लें, लेकिन अगर कोई युवक भी इस मुकाबले को जीत लेता है, तो आपको उससे लड़ना होगा।

इसमें आप मारे जा सकते हैं क्योंकि जो इंसान इस मुकाबले को जीतने के काबिल होगा, वह आपको मारने में भी सक्षम हो सकता है। अगर दुर्योधन ने यह मुकाबला जीता, तो वह आसानी से आपको मार सकता है। आप दोनों एक-दूसरे की टक्कर के हैं, मगर वह युवा है और आप बूढ़े और अगर संयोग से आप मुकाबला हार गए तो आपका साम्राज्य बर्बाद हो जाएगा। कोई राजा आगे आपके साथ जुड़ना नहीं चाहेगा। मुझे यकीन है कि आप इतने बुद्धिमान होंगे कि ऐसा कदम नहीं उठाएंगे।’ कृष्ण आगे कहते रहे, ‘इसलिए निश्चित रूप से आप यहां मुकाबले में भाग लेने नहीं आए हैं। आप यहां उस लड़की का अपहरण करने आए हैं।

ऐसा आप सिर्फ दो जगह कर सकते हैं। एक जगह वह है, जब वह दूसरी राजकुमारियों के साथ मंदिर आएगी। दूसरी जगह- जब वह विवाह कक्ष में प्रवेश करेगी।’ उन्होंने बताया, ‘इन दोनों जगहों पर मेरे सबसे धुरंधर लोग तैनात हैं। अगर आपका रथ निर्धारित मार्ग से थोड़ा भी भटका, तो तत्काल आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा। चाहे जिस तरह से भी, अगर आप अपनी किसी योजना पर अमल करने की कोशिश करेंगे, तो आपकी मौत तय है। आपके लिए सबसे अच्छा यही है कि आप द्रुपद को जो भी बढ़िया उपहार दे सकते हैं, देकर पूरी इज्जत से यहां से चले जाएं।’ जरासंध यह सुनकर घबरा गया।

जरासंध को बात समझ में आ गई। 5.जरासंध यदि महाभारत के युद्ध में होता तो युद्ध का रुख कुछ और होता। लेकिन श्रीकृष्ण को मालूम था कि महाभारत का युद्ध होना है उसके पहले ही उन्होंने कई महान योद्धाओं में से एक जरासंध को भी मारने की युक्ति सोच ली थी। दरअसल, जरासंध को किसी भी तरह से नहीं मारा जा सकता था। क्योंकि उसके दो टूकड़े होने के बाद भी वह पुन: जुड़कर जिंदा हो जाता था। एक बार श्रीकृष्ण पांडवों के साथ उसका वध करने के लिए उसी के राज्य में गए और उन्होंने जरासंध के अखाड़े में ही भीष से उसको चुनौती दिलवा दी। जरासंध को कुश्ती का बहुत शोक था। भीम ने श्रीकृष्ण के इशारे पर उसकी जंघा पकड़कर उसके दो टूकड़े कर दिए लेकिन वह फिर जुड़कर जिंदा हो जाता था। तब 14वें दिन श्रीकृष्ण ने एक तिनके को बीच में से तोड़कर उसके दोनों भाग को विपरीत दिशा में फेंक दिया। भीम, श्रीकृष्ण का यह इशारा समझ गए और उन्होंने वहीं किया। उन्होंने जरासंध को दोफाड़ कर उसके एक फाड़ को दूसरे फाड़ की ओर तथा दूसरे फाड़ को पहले फाड़ की दिशा में फेंक दिया। इस तरह जरासंध का अंत हो गया, क्योंकि विपरित दिशा में फेंके जाने से दोनों टुकड़े जुड़ नहीं पाए। 

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