मकर संक्रांति पर ही भीष्म पितामह ने क्यों त्यागा शरीर?

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन कुरुक्षेत्र की भूमि पर एक महान योद्धा मृत्यु का इंतजार कर रहा था। वे थे भीष्म पितामह। अर्जुन के बाणों से छलनी होकर भीष्म पितामह बाणों की पर शय्या 58 दिनों तक लेटे रहे। उनके पास ‘इच्छा मृत्यु’ का वरदान था, फिर भी उन्होंने एक खास दिन का इंतजार किया, वह दिन था मकर संक्रांति यानी उत्तरायण का। आखिर ऐसी क्या वजह थी कि भारी पीड़ा होने के बावजूद भी उन्होंने मृत्यु के लिए इसी दिन को चुना? आइए इसके पीछे का धार्मिक और आध्यात्मिक रहस्य जानते हैं।

सूर्य का उत्तरायण
शास्त्रों के अनुसार, साल को दो भागों में बांटा गया है। उत्तरायण और दक्षिणायन। मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करता है, जिसे सूर्य का उत्तरायण होना कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार, सूर्य का उत्तरायण ‘देवताओं का दिन’ कहलाता है, जबकि दक्षिणायन ‘देवताओं की रात्रि’ मानी जाती है। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति सूर्य के उत्तरायण होने पर शरीर त्यागता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर सीधे बैकुंठ धाम जाता है।

भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा
भीष्म पितामह बहुत बड़े ब्रह्मचारी थे और उन्होंने अपने जीवन में कठोर प्रतिज्ञाओं का पालन किया था। उनके पिता शांतनु ने उन्हें ‘इच्छा मृत्यु’ का वरदान दिया था। जब अर्जुन के बाणों से वे नीचे गिरे, तब सूर्य दक्षिणायन में था।

भीष्म जानते थे कि दक्षिणायन में मृत्यु होने पर आत्मा को अंधकार के मार्ग से जाना पड़ता है और फिर से धरती पर लौटना पड़ सकता है। इसलिए, उन्होंने अपनी प्राण शक्ति को अपनी आंखों में रोक लिया और तब तक इंतजार किया जब तक कि सूर्य उत्तर की ओर नहीं मुड़ गया।

हैरान करने वाला रहस्य
भीष्म पितामह ने इसी अवधि के दौरान युधिष्ठिर को ‘राजधर्म’ और ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ का उपदेश दिया। वे चाहते थे कि उनकी मृत्यु तब हो जब वे पूरी तरह सचेत और ज्ञान से भरे हों। एक साधारण मनुष्य के लिए बाणों की चुभन के साथ 58 दिन जीवित रहना असंभव है। लेकिन भीष्म ने योगिक क्रियाओं से अपनी इंद्रियों को वश में किया और यह साबित किया कि वह मन शरीर की पीड़ा से परे हैं।

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