राम हैं वैद्य और राम-नाम है रामबाण औषधि

श्रीराम ही सबसे बड़े और सच्चे वैद्य

‘व्याधि अनेक हैं, वैद्य अनेक हैं, उपचार भी अनेक हैं; किन्तु यदि व्याधि को एक ही देखें और उसको मिटाने वाला वैद्य एक राम ही है—ऐसा समझें तो हम बहुत-से झंझटों से बच जायेंगे । आश्चर्य है—वैद्य मरते हैं, डॉक्टर मरते हैं फिर भी हम उनके पीछे भटकते हैं । किन्तु जो ‘राम’ मरता नहीं, सदा जीवित रहता है और अचूक वैद्य है, उसे हम भूल जाते हैं । राम-नाम ही सारी बीमारियों का सबसे बड़ा इलाज है, इसलिए वह सारे इलाजों से ऊपर है ।’  (महात्मा गांधी)

जिसके हृदय में राम-नाम है उसे और किसी दवा की आवश्यकता नहींमहात्मा गांधी ने आगाखां महल में जब २१ दिनों तक उपवास किया तब उन्होंने इसका रहस्य बतलाते हुए लिखा—‘उन २१ दिनों तक मैं जो टिका रहा, उसका कारण वह पानी नहीं था जो मैं पीता था, न वह संतरे का रस था जिसे मैंने कुछ दिनों लिया था; मेरी जो असामान्य डॉक्टरी देखभाल हो रही थी वह भी इसका कारण नहीं थी । मैंने अपने भगवान को, जिसे मैं ‘राम’ कहता हूँ, अपने हृदय में बसा रखा था, इसलिए मैं टिका रहा ।’

महात्मा गांधी १९४७ में नोवाखाली में बीमार हो गए परन्तु उन्होंने डॉक्टर बुलाने और दवा खाने से मना करते हुए कहा—‘मेरा सच्चा डॉक्टर तो राम ही है । जहां तक उसे मुझसे काम लेना होगा, वहां तक वह मुझे जिलायेगा, नहीं तो उठा लेगा ।’ वे केवल राम-नाम का उच्चारण करते रहे और स्वस्थ हो गए ।

साबरमती आश्रम में सामूहिक प्रार्थना में स्वयं हाथ से ताल देते हुए गांधीजी रामधुन—‘रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम’ गाते थे । गांधीजी का कहना था कि—‘राम-नाम जब गले से उतरकर हृदय में प्रविष्ट हो जाता है, तब सब प्रकार के रोग एवं शोक से मुक्ति मिल जाती है।’

गांधीजी को राम-नाम इतना सिद्ध हो गया कि उन्हें हाथ में जप करने की माला भी विघ्न लगने लगी और वे माला को छोड़ कर कहते—‘करका मनका छोड़ के, मनका मनका फेर ।’

जैसे एक बच्चा अपनी मां को पुकारता है, वैसे ही प्रभु राम को पुकारते हुए गांधीजी यह पद गाते—

रघुवर तुमको मेरी लाज ।
हौं तौं पतित पुरातन कहये,
पार उतारो जहाज ।।

उनके जीवन के अंतिम शब्द थे—‘रा……म   हे…….रा…….।’

राम-नाम कैसे करता है रोग का इलाज

‘रा’ अक्षर के कहत ही निकसत पाप पहार ।
पुनि भीतर आवत नहिं देत ‘म’कार किंवार ।।

अर्थात्—‘रा’ अक्षर के कहते ही सारे पाप शरीर से बाहर निकल जाते हैं और वे दुबारा शरीर में प्रविष्ट नहीं हो पाते क्योंकि ‘म’ अक्षर तुरन्त शरीर के सारे दरवाजे (किवाड़) बन्द कर देता है । मानव शरीर पापों को भोगने के लिए मिला है, जब सारे पाप ही शरीर से निकल जाएंगे तो शरीर अपने-आप स्वस्थ, पवित्र और ओजयुक्त हो जाएगा ।

हमारे दु:ख कायिक, वाचिक और मानसिक—ये तीन प्रकार के होते हैं । निरन्तर राम-नाम का जप करते रहने से मनुष्य के शरीर व प्राणों का व्यायाम हो जाता है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है । राम-नाम का जप करते रहने से मनुष्य अन्य अपशब्दों का उच्चारण नहीं करता है  जिससे वाणी शुद्ध हो जाती है । पवित्र राम-नाम लेते रहने से आसपास का वातावरण शुद्ध हो जाता है, मनुष्य के बुरे विचार और आदतें दूर हो जाती हैं और वह पवित्रता, महानता और उच्च आदर्शों के मार्ग पर चलने लगता है । यही आध्यात्मिक उन्नति धीरे-धीरे हमें स्वास्थ्य, सुख, शान्ति और संतुलन की ओर ले जाती है ।

मनोवैज्ञानिकों ने भी माना है कि चिन्ताओं, व्याकुलताओं और दुर्बलताओं से लड़ने की सब प्रकार की शक्ति मनुष्य को ईश्वर से ही मिलती है । राम-नाम मनुष्य में आत्मविश्वास, उत्साह व गुप्त पुरुषार्थ पैदा करने की रामबाण दवा है जोकि सभी रोगों पर विजय पाने का सबसे अच्छा साधन है ।

राम-नाम जपतां कुतो भयं, सर्व ताप शमनैक भेषजम्ं…….।।

अर्थात्—‘राम-नाम’ जपने वालों को कोई भय कहां ! यह तो सभी तापों को दूर करने की एकमात्र औषधि है । राम-नाम का सहारा लेकर मनुष्य शान्ति की शय्या पर सुखपूर्वक सोता है—यह बात संतों व आयुर्वेद के आचार्यों ने भी स्वीकार की है ।

पाप कटें दु:ख मिटें, लेत राम-नाम ।
भव समुद्र सुखद नाव, एक राम-नाम।।

राम-नाम जैसा कोई जादू नहींत्रेता में केवल एक रावण था, लेकिन कलियुग में अनगिनत बीमारियां रूपी रावण हैं । उन रावणों पर विजय पाने के लिए राम की शक्ति की आवश्यकता है और वह शक्ति ‘रामनाम’ में निहित है क्योंकि त्रेता में स्वधामगमन से पहले श्रीराम ने अपनी सारी शक्तियां अपने नाम में संन्निहित कर दी थीं ।

श्रीसमर्थ गुरु रामदास ने लिखा है कि संसार रोग है । इसकी दिव्य दवा ‘राम-नाम’ है। रोग की दशा में पथ्य का भोजन और संयम प्रधान है । ‘राम-नाम’ रूपी औषधि और संयम रूपी पथ्य के योग से रोगों का शीघ्र ही नाश हो जाता है । तीन करोड़ राम-नाम जपने से हाथ की रेखाएं बदलने लगती हैं । कुण्डली के प्रतिकूल ग्रह अनुकूल होने लगते हैं और साधक के शरीर में कोई महारोग नहीं रह जाता है ।

‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ में लिखा है कि गौरांग महाप्रभु ने ‘हरे राम हरे कृष्ण’—इस नाम संकीर्तन से कई कोढ़ियों और असाध्य रोगियों को रोगमुक्त कर दिया ।

वैज्ञानिक श्रीजगदीशचन्द्र बसु ने परीक्षण से यह सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधे भी संकीर्तन की मधुर ध्वनि से नीरोग होकर अच्छी तरह बढ़ते हैं ।

‘श्रीराम जय राम जय जय राम’—का निरन्तर जप ही सब रोगों की मूल चिकित्सा है क्योंकि—

राम-नाम के दो अक्षर में क्या जानें क्या बल है ।
नामोच्चारण से ही मन का धुल जाता सब मल है ।।
गद्गद् होता कण्ठ, नयन से स्त्रावित होता जल है ।
पुलकित होता हृदय ध्यान आता प्रभु का पल-पल है ।।

मीराबाई ने तो स्पष्ट कह दिया—

दरद की मारी बन बन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय ।
मीरा की प्रभु पीड़ मिटैगी, जो बैद सांवलिया होय ।।

महारसायन राम-नाम को लेने की है कुछ शर्तें—इसकी पहली शर्त है कि राम-नाम दिल से निकलना चाहिए । जब तक मनुष्य अपने अंदर-बाहर की सच्चाई, ईमानदारी और पवित्रता के गुणों को नहीं अपनाता, तब तक उसके दिल से राम-नाम नहीं निकल सकता है ।

—दिल में राम-नाम को बसा लेने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है ।

—जीभ के चटोरों के लिए राम-नाम किसी काम का नहीं । जिसने सारी वासनाओं को त्याग दिया है वही सच्चे अर्थ में ‘रामरस’ को पी सकता है ।

कलियुग में मनुष्य की आयु तो अल्प है, उसमें भी मनुष्य सोचता रहता है क्या-क्या किया जाए ? क्योंकि पुराणों का पार नहीं है, वेदों का भी अंत नहीं है, संतों की वाणियां (उपदेश) भी अनेक हैं—किस-किस में मन लगाया जाए ? काव्य भी अनन्त हैं, किस-किस का पान (अपनाया) किया जाए ? परन्तु सब का निचोड़ यह है कि सारा समय मन-ही-मन राम-नाम लेते रहिए । इस तरह करने से एक दिन ऐसा आएगा, जब राम-नाम मनुष्य के सोते-जागते का साथी बन जाएगा और रामजी की कृपा से तन-मन और आत्मा पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएंगे ।

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