जानिए गुरु नानकदेव के जीवन मंत्र, बदल देंगे नजरिया

सिख धर्म की स्थापना करने वाले पहले गुरु नानकदेव का जन्म कार्तिक पूर्णिमा को रावी नदी के किनार स्थित तलवंडी नामक गांव हुआ था। तलवंडी का नाम आगे चलकर गुरु नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इस दिन को प्रकाश पर्व के रूप में देश-दुनिया में बसे सिख पूरे धूम-धाम से मनाते हैं। गुरु नानक देव जी के व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु सभी के गुण थे। जानते हैं, उनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें…

गुरु नानक ने बचपन से ही रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत कर दी थी। वे धर्म प्रचारकों को उनकी खामियां बतलाने के लिए अनेक तीर्थस्थानों पर पहुंचे और लोगों से धर्मांधता से दूर रहने का आग्रह किया। उनका मानना था कि एक सर्वशक्ति है, जो अपनी हर रचना में बसता है।

गुरु नानक देव ने कहा कि महिलाओं का आदर-सम्मान करना चाहिए। उन्होंने स्त्री और पुरुषों की समानता की बात करते हुए दोनों में किसी प्रकार के भेद को नहीं माना। उन्होंने कर्म और खुशी की महत्ता पर जोर दिया। उनका मानना था कि मनुष्य को शांत चित्त से एकाग्र होकर अपना काम करना चाहिए, तभी उसे आतंरिक खुशी की अनुभूति होगी।

गुरु नानक देव ने कहा कि कभी भी धन को अपने मन पर हावी नहीं होने देना चाहिए। इससे केवल दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही इस्तेमाल करना चाहिए। अगर हम धन के लालच में पड़ेंगे, तो हमें ही नुकसान उठाना पड़ सकता है। उन्होंने अहंकार छोड़ने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि मनुष्य का स्वभाव विनम्र होना चाहिए, तभी वह प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकता है और उसके मन में लोगों के प्रति सेवाभाव पैदा हो सकता है।

कहते हैं कि नानकदेव जी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए 20 रुपए दिए। उन्होंने कहा कि इन 20 रुपए से सच्चा सौदा करके आओ। नानक देव जी सौदा करने निकले, तो रास्ते में उन्हें साधु-संतों की मंडली मिली। नानकदेव जी साधु-संतों को 20 रुपए का भोजन करवा कर वापस लौट आए। पिताजी ने पूछा- क्या सौदा करके आए, तो उन्होंने कहा- ‘साधुओं को भोजन करवाया, यही तो सच्चा सौदा है।

गुरु नानक जी का कहना था कि ईश्वर मनुष्य के हृदय में बसता है। अगर हृदय में निर्दयता, नफरत, निंदा, क्रोध आदि विकार हैं, तो ऐसे मैले हृदय में परमात्मा बैठने के लिए तैयार नहीं हो सकते हैं। गुरु नानक जीवन के अंतिम चरण में करतारपुर बस गए। उन्होंने 25 सितंबर, 1539 को अपना शरीर त्याग दिया। मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।

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