आप नहीं जानते हैं कि महाभारत में एक नहीं तीन कृष्ण थे, चौंकाने वाला रहस्य

पहले कृष्ण : महाभारत में पहले कृष्ण महर्षि वेदव्यास थे, जिन्होंने महाभारत की रचना की थी। इनकी माता का नाम सत्यवती और पिता का नाम महर्षि पाराशर था। इनका असली नाम श्रीकृष्ण द्वैपायन था। इस संबंध में दो कथाएं मिलती हैं। पहली यह कि इनका रंग सावंला था और इनका जन्म एक द्वीप पर हुआ था। इसीलिए इन्हें श्रीकृष्ण द्वैपायन कहा जाता है। दूसरी यह कि जन्म लेते ही ये महर्षि युवा हो गए और तपस्या करने द्वैपायन द्वीप चले गए। तपस्या करने से वे काले हो गए। इसलिए उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। वेदों का विभाग करने के करण वे वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सवाल यह कि इनको पहला कृष्ण क्यों कहते हैं। दरअसल ये भी विष्णु के ही अवतार थे। श्रीमद्भागवत में भगवान विष्णु के जिन 24 अवतारों का वर्णन है, उनमें महर्षि वेदव्यास का भी नाम है। महर्षि वेदव्यास की कृपा से ही धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म हुआ था और इन्हीं की कृपा से गांधारी के 100 पुत्र हुए थे। महाभारत में समय समय पर इनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही है। इन्हीं के प्रयासों से भागवत धर्म की स्थापना हुई थी।
महर्षि वेदव्यास ने ही संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी, जिससे संजय ने धृतराष्ट्र को पूरे युद्ध का वर्णन महल में ही सुनाया था। महर्षि वेदव्यास ने ही अश्‍वत्थामा को अपना ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा था और उन्होंने ही श्रीकृष्ण द्वारा अश्‍वत्‍थामा को शाप देने का अनुमोदन किया था। महर्षि वेदव्यास ने जब कलयुग का बढ़ता प्रभाव देखा तो उन्होंने ही पांडवों को स्वर्ग की यात्रा करने के लिए कहा था।

उन्होंने ही युद्ध के 15 वर्ष के पश्चात एक दिन के लिए युद्ध में मारे गए कौरव और पांडवों के भाई बंधुओं को जीवित कर दिया था। धर्म ग्रंथों में जो अष्ट चिरंजीवी (8 अमर लोग) बताए गए हैं, महर्षि वेदव्यास भी उन्हीं में से एक हैं। इसलिए इन्हें आज भी जीवित माना जाता है।

दूसरे कृष्ण : महाभारत के दूसरे श्रीकृष्ण के बारे में तो सभी जानते हैं जिन्होंने हर समय पर पांडू पुत्रों पांडवों का साथ दिया और अर्जुन का सारथी बनकर कुरुक्षेत्र के युद्ध में उन्हें विजय दिलाई। वही महाभारत के महानायक थे।

तीसरे कृष्ण : महाभारत के इस तीसरे कृष्ण को नकली कृष्ण कहा जाता है। पुंड्र देश के राजा का नाम पौंड्रक था। चेदि देश में यह ‘पुरुषोत्तम’ नाम से सुविख्यात था। इसके पिता का नाम वसुदेव था। इसलिए वह खुद को वासुदेव कहता था। यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था। कौशिकी नदी के तट पर किरात, वंग एवं पुंड्र देशों पर इसका स्वामित्व था। यह मूर्ख एवं अविचारी था।
पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। कृष्ण तो ग्वाला है। बस यह बात उसके दिमाग में बैठ कई थी और उसने भी श्रीकृष्ण की तरह अपना रंग और रूप बना लिया था।

राजा पौंड्रक नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि, पीले वस्त्र पहनकर खुद को कृष्ण कहता था। एक दिन उसने भगवान कृष्ण को यह संदेश भी भेजा था कि ‘पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार करने के लिए मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है। भगवान वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्रों पर तेरा कोई भी अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्रों एवं नाम को तुरंत ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’
बहुत समय तक श्रीकृष्ण उसकी बातों और हरकतों को नजरअंदाज करते रहे, बाद में उसकी ये सब बातें अधिक सहन नहीं हुईं और उन्होंने युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली। युद्ध के मैदान में नाटकीय ढंग से युद्धभूमि में प्रविष्ट हुए इस ‘नकली कृष्ण’ को देखकर भगवान कृष्ण को अत्यंत हंसी आई। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।

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