अर्थात आवरण रहित ज्ञान जिनका होता है वह केवली अर्थात सर्वज्ञ हैं। केवल शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ आचार्य पूज्यपाद इस तरह करते हैं- बाह्नेनाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम2 अर्थात बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा अर्थीजन मार्ग का केवन अर्थात सेवन करते हैं। उस सेवन से प्राप्त ज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ कहलाता है। तत्वार्थ राजवार्तिक में वर्णन आता है कि ज्ञानावरणादि घातीकर्मों का अत्यंत क्षय हो जाने पर सहजता से, स्वाभाविक ही अनन्तचतुष्टय का प्रस्फुटन होता है तथा इंद्रियों की आवश्यकता से परे ज्ञानोदय का प्रारंभ होता है अर्थात जिनका ज्ञान इंद्रिय कालक्रम और दूर देशादि के व्यवधान से परे है, परिपूर्ण है, वह सर्वज्ञ है।3 रत्नाकरावतारिका में वर्णन आता है कि-
वीतराग पद को समझाते हुए जैनेन्द्र सिद्धांत कोष में कहा गया है कि- वीतो नष्टो रागो येषां ते वीतराग: अर्थात जिनका रोग, द्वेष नष्ट हो गया है वह वीतराग है। अभिप्राय है कि वीतराग मोहनीय कर्मोदय से भिन्नत्व की उत्कृष्ट भावना का चिंतन करके निर्विकार आत्मस्वरूप को विकसित करते हैं। अत: वे वीतराग कहलाते हैं।6
ईश्वर पद की अभिव्यक्ति करते हुए कहा है कि जो केवलज्ञान रूपी ऐश्वर्य से युक्त हैं, देवेंद्र भी जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वह ‘ईश्वर’ है।7 सर्वज्ञ को शुद्ध, सकल, अनंतादि पदों से अभिहित करते हुए कहा है कि-
जिनेन्द्र वर्णी ने ‘कार्य परमात्मा’ और ‘कारण परमात्मा’ को स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘कार्य परमात्मा’ वह है जो पहले संसारी था, लेकिन वर्तमान में कर्म नष्ट कर मुक्त हो चुका है। ‘कारण परमात्मा’ वह है जो देश कालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्व है। जो मुक्त और संसारी सभी में अन्वय रूप से पाया जाता है। ‘कारण परमात्मा’ का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि वह जन्म, जरा और मरणरहित होता है। परम शुद्ध, ज्ञानादि चतुष्टय से युक्त, अक्षय, अविनाशी और अच्छेद्य है वह ‘कारण परमात्मा’ है।9
1. सयोगी केवली- जो केवली मन, वचन, काया के योग सहित हैं वे सयोगी केवली कहलाते हैं।
जैसे खड़िया (सफेदी) दीवार पर लगाने से दीवार के साथ एक रूप नहीं होती। एक रूप न होने से वह दीवार के बाह्य भाग में ही रहती है। इस प्रकार सर्वज्ञ की आत्मा घटपटादि ज्ञेय पदार्थों का ज्ञायक होने पर भी उसमें तल्लीन नहीं होती। ज्ञायक ज्ञायकपणे में ही रहती है।
इस प्रकार सर्वज्ञ प्रभु लोकालोक के ज्ञाता त्रिलोचन होने पर भी ‘स्व’ में लीन सच्चिदानंद स्वरूप को देखते हैं। दीपक घर की दहलीज पर होने से घर के साथ आंगन को भी प्रकाशित करता है। वैसे ही ज्ञान स्व आत्मा को तो प्रकाशित करता ही है, किन्तु बाह्य जगत को भी प्रकाशित करता है। वास्तव में आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है। ज्ञानपिंड का दर्शन आत्मदर्शन है। निश्चय एवं व्यवहार के समन्वय द्वारा इसे जाना जा सकता है। अत: सर्वज्ञ प्रभु स्व पर प्रकाशक है।
2. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थ सिद्धि 6/91
3. करण क्रमण्यवधानातिवर्तिज्ञार्नापेता: केवलिन:। तत्वार्थ राजवार्तिक, 6/13 वृत्ति
4. रत्नकरावतारिका, सूत्र 23
5. जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जित:। हतमोहमहात्त: केवलज्ञान दर्शन:।
सूरासुरेन्द्रसंपूज्य: संभ्दूतावर्थप्रकाशक:। कृत्सन्नकर्मापयंकृत्वा परमं पाम्।।
आचार्य हरिभद्रासूरि षड्दर्शन समुच्चय, गाथा-1
6. सकलमोहनीयविपाकविवेकभावना सौष्ठव स्फटोकृत निर्विकारात्म स्वरूप दि्वतराग: जिनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, पृ.सं. 583
7. केवलज्ञानादि गुणैश्वर्ययुक्तस्य संतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिण: सन्तो यस्याज्ञानां कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति। जैनेन्द्र सिद्धांत कोश पृ.सं. 5838. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-84
9. निजकारणपरमात्माभावनोत्पन्न कार्य परमात्मा स एव भगवान् परमेश्वरा, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश पृ.सं. 583
10. नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती, गोम्मटसार जीवकांड, गाथा 65
11. मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणनियरं सगं च स्व्वं च।
पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ नियमसार, गाथा 167
12. ते पुणु वंद द सिद्ध- गण जे अप्पाणि बसंत।
लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहि विमलुणियंत।। योगीन्दु देव, परमात्म प्रकाश, गाथा 5
13. प्रवचनसार, गाथा 32
14. ण पविट्ठो भाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खु।
जाणदि परसदि णियदं अवखातीतो जगमसेसं।। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार गाथा 29
15. अशेषबाह्यार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिन: सर्वज्ञाता, स्वरूपपरिचिन्त्य- भावादित्युक्ते, त्रिकाल
गोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति आचार्य जयसिंग, धवला टीका, 13/5/5/84
16. रयणमिह इन्दनीलं दुध्द समियं जहा समासार:। अभिश्रूयतं पि दुध्द वट्ठदि तह गाणमत्थेसु।। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार, गाथा 30
Shree Ayodhya ji Shradhalu Seva Sansthan राम धाम दा पुरी सुहावन। लोक समस्त विदित अति पावन ।।
