जिसके चरणों को रावण भी न हिला सका….

Angadभगवान श्रीराम जब सेतु बाँधकर लंका पहुँच गये तब उन्होंने बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर रावण के दरबार में भेजा।

रावण ने कहाः “अरे बंदर ! तू कौन है?”

अंगदः “हे दशग्रीव ! मैं श्रीरघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से तुम्हारी मित्रता थी, इसीलिए मैं तुम्हारी भलाई के लिए आया हूँ। तुम्हारा कुल उत्तम है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। तुमने शिवजी और ब्रह्माजी की बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाये हैं और सब काम सिद्ध किये हैं। किंतु राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीता जी को हर लाये हो। अब तुम मेरे शुभ वचन सुनो। प्रभु श्रीरामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे। 

दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी।।

सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें।।4।।

(श्रीराम चरित. लंकाकाण्डः 19.4)

दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और अपनी स्त्रियों सहित कुटुम्बियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकी जी को आगे करके इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो और हे शरणागत का पालन करने वाले रघुवंशशिरोमणि श्रीरामजी ! मेरी रक्षा कीजिए…. रक्षा कीजिए…’ इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो। आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे।”

 

अंगद को इस प्रकार कहते हुए देखकर रावण हँसने लगा और बोलाः

 

“क्या राम की सेना में ऐसे छोटे-छोटे बंदर ही भरे हैं? हाऽऽऽ हाऽऽऽ हाऽऽऽ…. यह राम का मंत्री है? एक बंदर आया था हनुमान और यह वानर का बच्चा अंगद !”

 

अंगदः “रावण ! परख अक्ल होशियारी से होती है, न कि उम्र से।”

 

फिर अंगद को हुआ कि ‘यह शठ है, ऐसे नहीं मानेगा। इसे मेरे प्रभु श्रीराम का प्रभाव दिखाऊँ।’ अंगद ने रावण की सभा में प्रण करके दृढ़ता के साथ अपना पैर जमीन पर जमा दिया और कहाः

 

“अरे मूर्ख ! यदि तुममें से कोई मेरा पैर हटा सके तो श्रीरामजी जानकी माँ को लिए बिना ही लौट जायेंगे।”

 

कैसी दृढ़ता थी भारत के उस युवक अंगद में ! उसमें कितना साहस और शौर्य था कि रावण से बड़े-बड़े दिग्पाल तक डरते थे उसी की सभा में उसी को ललकार दिया !

 

मेघनाद आदि अनेकों बलवान योद्धाओं ने अपने पूरे बल से प्रयास किये किंतु कोई भी अंगद के पैर को हटा तो क्या, टस-से-मस तक न कर सका। अंगद के बल के आगे सब हार गये। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का पैर पकड़ने लगा तो अंगद ने कहाः

 

“मेरे पैर क्या पकड़ते हो रावण ! जाकर श्रीरामजी के पैर पकड़ो तो तुम्हारा कल्याण हो जायेगा।”

 

यह सुनकर रावण बड़ा लज्जित हो उठा। वह सिर नीचा करके सिंहासन पर बैठ गया। कैसा बुद्धिमान था अंगद ! फिर रावण ने कूटनीति खेली और बोलाः

 

“अंगद ! तेरे पिता बालि मेरे मित्र थे। उनको राम ने मार दिया और तू राम के पक्ष में रहकर मेरे विरुद्ध लड़ने को तैयार है? अंगद ! तू मेरी सेना में आ जा।”

 

अंगद वीर, साहसी, बुद्धिमान तो था ही, साथ ही साथ धर्मपरायण भी था। वह बोलाः

 

“रावण ! तुम अधर्म पर तुले हो। यदि मेरे पिता भी ऐसे अधर्म पर तुले होते तो उस वक्त भी मैं अपने पिता को सीख देता और उनको विरुद्ध श्रीरामजी के पक्ष में खड़ा हो जाता। जहाँ धर्म और सच्चाई होती वहीं जय होती है। रावण ! तुम्हारी यह कूटनीति मुझ पर नहीं चलेगी। अभी भी सुधर जाओ।”

 

कैसी बुद्धिमानी की बात की अंगद ने ! इतनी छोटी उम्र में ही मंत्रीपद को इतनी कुशलता से निभाया कि शत्रुओं के छक्के छूट गये। साहस, शौर्य, बल, पराक्रम, तेज-ओज से संपन्न वह भारत का युवा अंगद केवल वीर ही नहीं, विद्वान भी था, धर्म-नीतिपरायण भी था और साथ ही प्रभुभक्ति भी उसमें कूट-कूटकर भरी हुई थी।

 

हे भारत के नौजवानो ! याद करो उस अंगद की वीरता को कि जिसने रावण जैसे राक्षस को भी सोचने पर मजबूर कर दिया। धर्म तथा नीति पर चलकर अपने प्रभु की सेवा में अपना तन-मन अर्पण करने वाला वह अंगद इसी भूमि पर पैदा हुआ था। तुम भी उसी भारतभूमि की संतानें हो, जहाँ अंगद जैसे वीर रत्न पैदा हुए। भारत की आज की युवा पीढ़ी चाहे तो बहुत कुछ सीख सकती है अंगद के चरित्र से।

108 Names of Lord Ram
Will raise India's Hindu population to 100% from 82%: Togadia

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