श्रीमद्भागवत महापुराण में युगल की उपासना को विशेष महत्व दिया गया है। राधा-कृष्ण सीता-राम और गौरी-शंकर। राधाकृष्ण एक ही हैं शक्ति और शक्तिमान। यहां श्रीमद्भावतपुराण यह प्रेरणा देता है स्त्री-पुरुष दोनों ही एक दूसरे पूरक हैं। धर्म की गति-मति तभी कल्याणप्रदा होगी जब दोनों के में विचारों में सामंजस्य और परस्पर सद्भावना हो।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में तीन प्रकार के तापों का समुल्लेख है। हमारे द्वारा किए पापों का परिणाम है ताप। पहला आध्यात्मिक ताप, दूसरा-आधिभौतिक ताप और आधिदैविक ताप।
आध्यात्मिक ताप दो प्रकार का होता है- शारीरिक और मानसिक। शरीर में रोगादि से जो कष्ट होता है, उसे शारीरिक ताप कहते हैं। काम, क्रोध, मद, लोभादि से जो आंतरिक वेदना होती, उसे मानसिक ताप कहते हैं। तीनों प्रकार के तापों का शमन भगवान की भक्ति से हो जाता है।
भक्ति का तात्पर्य है- मन, वचन और कर्म से समस्त प्राणियों का हित चिंतन करना और जीविकोपार्जन हेतु जिस भी कार्य में लगे हैं, उसे सत्य-निष्ठा पूर्वक कर्तव्यबोध के साथ करना। जीवन में जो प्रतिकूल परिस्थितियां हमारे सामने आती हैं, उसके पीछे एक ही कारण शोधपरक है कि कभी न कभी हमारे द्वारा सत्य को उपेक्षित किया गया है। आध्यत्मिक ताप का शमन भगवन्नाम जप-पूजनादि से हो जाता है।
चोर-डाकुओं, हिंसक पशुओं और अराजकतत्वों से जो भय या कष्ट होता है, उसे आधिभौतिक ताप कहते हैं। इसका शमन दान-पुण्यादि सत्कर्मों से हो जाता है। उल्कापात, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़ आ जाना, पर्वतों का गिरना आदि से जो कष्ट होता है, उसे आधिदैविक ताप कहते हैं, इस ताप निवृत्ति सदाचार और सद्व्यवहार से हो जाती है। जो आचरण धर्म-मर्यादादि के अनुकूल तथा निर्मल और पवित्र हो, उसे सदाचार कहते हैं।
जो कार्य-व्यवहार हमें न अच्छा उसे दूसरे के साथ नहीं करना चाहिए, ऐसा शुभचिंतन सद्व्यवहार की श्रेणी में आता है। भगवान की स्तुति और वंदना नित्य करनी चाहिए, किंतु किसी कामना से नहीं, अपितु मन से प्रेमपूर्वक करनी चाहिए, इससे पाप-ताप सब कट जाते हैं। संसार और संसारी आप से सुख चाहता है, उसे आपके दुःख या कष्ट से क्या अभिप्राय है? केवल भगवान ही ऐसे हैं, जो आपके दुख के परमसखा है। जो दुख में साथ दे, वह ईश्वर और जो सुख में याद करे, वह जीव।
श्रीमद्भागवत महापुराण में युगल की उपासना को विशेष महत्व दिया गया है। राधा-कृष्ण, सीता-राम और गौरी-शंकर। राधाकृष्ण एक ही हैं, शक्ति और शक्तिमान। यहां श्रीमद्भावतपुराण यह प्रेरणा देता है, स्त्री-पुरुष दोनों ही एक दूसरे पूरक हैं। धर्म की गति-मति तभी कल्याणप्रदा होगी, जब दोनों के में विचारों में सामंजस्य और परस्पर सद्भावना हो। पति-पत्नी में अलगाव का कारण है, जीवन में सत्संग का अभाव और धर्मशास्त्रों के प्रति उपेक्षित दृष्टि है।
श्रीमद्भागवत महापुराण का शुभारंभ भगवान की वंदना से किया गया है तथा समापन भी वंदना से है। भगवान की वंदना का तात्पर्य है, हे प्रभु हम आपकी शरण में हैं, हमारा कल्याण कीजिए। हम जिस शुद्धभावना से प्रभु का स्मरण और उनका पूजनादि करते हैं, वैसा ही हमारा विचार और व्यवहार संसार को प्रभावित करता है।
भगवत्पूजनादि से हमारी क्रियाशक्ति और बुद्धिशक्ति सन्मार्गी हो जाती है। बहुत पढ़ने, जानने और विचारने की अपेक्षा सदाचरण को जीवनमें यथाशीघ्र धारण कर लेना चाहिए। वेदों का पार नहीं, पुराणों का अंत नहीं और जीवन थोड़ा ही है।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में यही बताया गया है, किस प्रकार प्राणी कम समय में जीवन-जगत और जगदीश के यथार्थ स्वरूप को समझ ले। सात ही दिनों में राजा परीक्षित ने सद्गगति प्राप्त कर ली थी। जिस प्रकार राजा परीक्षित ने अपना सर्वस्व त्याग कर मृत्यु को भी श्रीगुरुगोविंद स्वरूप शुकदेव महाभाग की कृपा से जीत लिया, तक्षक सर्प के दंश के महाविष से उनका शरीर भस्म हो गया, किंतु उससे पहले ही वह परमात्मा में विलीन हो चुके थे। यह ध्रुव सत्य है, जो मरणधर्मा संसार में आया है, वह एक दिन यहां से जाएगा। इसलिए हम लोक में प्रीतिपूर्वक निष्काम कर्म करते हुए, परमार्थिक जीवन जिएं।