देवी सीता में अपनी माँ को देखता था रावण!

कहा जाता है रामायण के कई सार हैं जिससे आज भी लोग अनजान है. ऐसे में कहा जाता है मायावी रावण को देवी सीता में अपनी मां के दर्शन होते थे. जी हाँ, इस सार की कथा आज हम आपको बताने जा रहे हैं.

कथा – ये कथा उस समय की है जब श्रीराम और रावण का युद्ध हो रहा था. उस समय अनेकानेक रक्ष-सुभटों के रणभूमि में सो जाने के कारण हताश होकर रावण ने कुंभकर्ण को जगाने का विचार किया. अनेक प्रकार के उपायों द्वारा उसे जगाया. जागते ही उसने पूछा कि, ”आज तक उसे कभी भी नहीं जगाया गया था तो फिर आज ऐसी कौन-सी समस्या आ गई कि उसे उठाने की आवश्यकता आ गई?” रावण ने सीताहरण-लंकादहन-समुद्र पर सेतु निर्माण कर श्रीराम के लंका-आगमन का वर्णन करते हुए बताया कि अक्षय कुमार, प्रहस्त, अकंपन, अतिकाय, देवांतक, नरांतक, मकराक्ष आदि सहित खर-दूषण भी वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं. अब लंका के गौरव की रक्षा वीरवर!

तुम्हारे पराक्रम के अधीन है. कुंभकर्ण ने उसकी भत्र्सना करते हुए कहा कि ”सीता जगदम्बा है. उसका हरण कर तुमने उचित नहीं किया किंतु अनुचित भी कैसे कहूं? देवर्षि नारद मुझे, हमारे अंत का कारण जो वर्षों पूर्व बता चुके थे, वह असत्य नहीं था. उसे सत्य सिद्ध करने के तुम साधन बने. बनने ही थे. बन गए.” रावण जानता था कि यदि उसने सीता को लौटाने का प्रस्ताव रख दिया तो समस्या हो जाएगी. कुंभकर्ण विभीषण जैसा सज्जन तो नहीं था कि उसे भी लात मारकर निकाल देता.

वह कुंभकर्ण के चरित्र की दुर्बलता जानता था. एक संकेत पर मदिरा के घड़े- के-घड़े, विभिन्न प्रकार के मांसों के भार-के-भार आने लगे. कुंभकर्ण खा-पीकर रणरंग में रंगने लगा. इस स्थिति में उसने पूछा कि, ”सखे! तुमने जिस कारण जानकी का हरण किया उसका उपभोग भी किया कि नहीं?”रावण ने उत्तर दिया, ”समस्त प्रकार के लोभ-लालच, भय आदि दिखाकर थक चुका हूं परन्तु वह मेरी ओर देखने को भी तैयार नहीं है.” मद की मादकता में धुत्त कुंभकर्ण बोला, ”अरे राक्षसराज! तुम तो मायावी हो. एक बार राम का रूप रखकर चले जाते. काम बन जाता.” रावण बोला, ”अरे मित्र! सखे! मैंने यह भी विचार किया था किंतु राम का रूप धारण करने के लिए जैसे ही मैं राम रूप का ध्यान करता हूं मेरे मन की समस्त कलुषित भावना नष्ट हो जाती है. मैं प्रत्येक स्त्री में अपनी माता के दर्शन करने लगता हूं. स्वयं से लज्जित होकर बैठ जाता हूं.” कहकर रावण मौन हो गया. मदमत्त कुंभकर्ण की वाणी अत्यधिक मदिरापान के कारण लडख़ड़ाने लगी. उसी अवस्था में वह एक-एक शब्द को खींचता हुआ-सा बोलने लगा, ”भइया, लंकेश्वर! उठो, इस अपने अनुज को अंतिम हां अंतिम आलिंगन दो.

विदा…विदा…करो.”प्रत्युत्तर में रावण के ‘विजयी भव’ शब्दों का अट्टहास के रूप में उपहास उड़ाता हुआ कुंभकर्ण मद्य-पात्रों को ठुकराता हुआ, प्रभु के हाथों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए राक्षसी स्वभाव के अनुरूप बकता-झकता, अपने बल-विक्रम-शौर्य का उच्च स्वर से बयान करता हुआ, रक्ष-सेना को प्रमादपूर्ण धिक्कृत दृष्टि से देखता हुआ लंका द्वार की ओर न देखकर प्राचीर फांदता हुआ, घोर गर्जना से दिशाओं को प्रकंपित करता हुआ, समरांगण की ओर बढ़ चला. आरती के थाल सजाए वज्र ज्वाला, सानंदिनी आदि रानियां उसकी ओर बढऩे का साहस नहीं दिखा पाने के कारण दूर खड़ी रह गर्ईं. श्रीराम कथा के इस पावन प्रसंग से यही निष्कर्ष निकलता है कि श्रीराम के स्वरूप के चिंतनमात्र से जब उनके परम वैरी में भी सात्विकता का संचार हो जाता है तो फिर श्रीराम भक्त का तो कहना ही क्या!

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