पापमोचिनी एकादशी का व्रत करने से सहस्त्र अर्थात् हजार गायों के दान का फल मिलता: धर्म

पापमोचनी एकादशी पापों को नष्ट करने वाली एकादशी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, ऐसा कहा जाता है कि पापमोचनी एकादशी व्रत करने से व्रती के समस्त प्रकार के पाप और कष्ट दूर हो जाते हैं।

इस व्रत को करने से भक्तों को बड़े से बड़े यज्ञों के समान फल की प्राप्ति होती है। पापमोचिनी एकादशी का व्रत करने से सहस्त्र अर्थात् हजार गायों के दान का फल मिलता है।

ब्रह्म ह्त्या, सुवर्ण चोरी, सुरापान और गुरुपत्नी गमन जैसे महापाप भी इस व्रत को करने से दूर हो जाते हैं। इस एकादशी तिथि का बड़ा ही धार्मिक महत्व है और पौराणिक शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है।

पापमोचिनी एकादशी प्रति वर्ष चैत्र मास में आती है। चैत्र मास के शुक्ल की एकादशी तिथि को ही पापमोचनी एकादशी तिथि के नाम से जाना जाता है। इस वर्ष यह तिथि 19 मार्च को पड़ रही है। अतः पापमोचनी एकादशी का व्रत 19 मार्च को रखा जाएगा।

पापमोचनी एकादशी पारणा मुहूर्त :13:41:30 से 16:07:07 तक, 20 मार्च 2020
अवधि : 2 घंटे 25 मिनट

पापमोचिनी व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है।
व्रती को एक बार दशमी तिथि को सात्विक भोजन करना चाहिए।
मन से भोग-विलास की भावना त्यागकर भगवान विष्णु का  स्मरण करना चाहिए।
एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए।
संकल्प के उपरांत षोडषोपचार सहित श्री विष्णु की पूजा करनी चाहिए।
भगवान के समक्ष बैठकर भगवद् कथा का पाठ अथवा श्रवण करना चाहिए।
झूठ या अप्रिय वचन न बोलें और प्रभु का स्मरण करें।

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु युधिष्ठिर से कहते है ‘‘राजा मान्धाता ने एक समय में लोमश ऋषि से जब पूछा कि प्रभु यह बताएं कि मनुष्य जो जाने-अनजाने में पाप कर्म करता है उससे कैसे मुक्त हो सकता है। राजा मान्धाता के इस प्रश्न के जवाब में लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई कि चैत्ररथ नामक सुन्दर वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि तपस्या में लीन थे।

इस वन में एक दिन मंजुघोषा नामक अप्सरा की नजर ऋषि पर पड़ी तो वह उन पर मोहित हो गयी और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने हेतु यत्न करने लगी। कामदेव भी उसी समय उधर से गुजर रहे थे कि उनकी नजर अप्सरा पर गई और वह उसकी मनोभावना को समझते हुए उसकी मदद करने लगे। इस तरह अप्सरा अपने यत्न में सफल हुई और ऋषि कामपीड़ित हो गये।

काम के वश में होकर ऋषि शिव की तपस्या का व्रत भूल गये और अप्सरा के साथ रमण करने लगे। कई वर्षों के बाद जब उनकी चेतना जगी तो उन्हें एहसास हुआ कि वह शिव की तपस्या से वह विरत हो चुके हैं, उन्हें तब उस अप्सरा पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने अप्सरा को पिशाचनी होने का श्राप दे दिया।

श्राप से दुःखी होकर वह ऋषि के पैरों पर गिर पड़ी और श्राप से मुक्ति के लिये अनुनय करने लगी। अप्सरा की याचना से द्रवित हो मेधावी ऋषि ने उसे विधि सहित चैत्र कृष्ण एकादशी का व्रत करने के लिये कहा।

भोग में निमग्न रहने के कारण ऋषि का तेज भी लोप हो गया था, अतः ऋषि ने भी इस एकादशी का व्रत किया, जिससे उनका पाप नष्ट हो गया। उधर अप्सरा भी इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हो गई। पाप से मुक्त होने के पश्चात अप्सरा को सुन्दर रूप प्राप्त हुआ और वह स्वर्ग के लिये प्रस्थान कर गई।

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