आज की पौराणिक कथा का सार है कि आखिर पाप कहां-कहां जाता है। इसी सिलसिले में एक बार एक ऋषि ने सोचा की लोग पाप नष्ट करने के लिए सभी लोग गंगा जाते हैं। ऐसे में सभी पाप गंगा में ही समा जाते हैं। इस प्रकार तो गंगा भी पापी हो जाएगी। उस ऋषि ने ये जानने के लिए तपस्या की कि आखिर पाप कहां जाता है। वही तपस्या करने के फलस्वरूप ईश्वर प्रकट हुए। तब ऋषि ने उनसे कहा कि गंगा में जो पाप नष्ट किए जाते है वह कहां जाता है। तब ईश्वर ने कहा कि चलो इस बारे में गंगा जी से ही पूछते हैं। ऋषि एवं ईश्वर दोनों ने ही गंगा जी से कहा कि हे गंगे! सब लोग तुम्हारे यहां पाप धोते हैं तो इसका अर्थ क्या आप भी पापी हुईं?
तब गंगा ने कहा कि मैं कैसे पापी हो गई। मैं तो सभी पाप लेकर समुद्र को अर्पित कर देती हूं। तत्पश्चात, ऋषि तथा ईश्वर समुद्र के समीप गए तथा उनसे कहा कि हे सागर! गंगा सभी पाप आपको अर्पित कर देती है तो क्या ऐसे में आप पापी हो गए? तब समुद्र ने कहा कि वो कैसे पापी हुआ। वो सभी सभी पाप को भाप बनाकर बादल बना देता है। अब ऋषि तथा ईश्वर दोनों ही बादल के पास गए। उनसे पूछा कि हे बादल! समुद्र पापों को भाप बनाकर बादल बना देते हैं तो क्या आप पापी हुए?
वही तब बादलों ने कहा, मैं कैसे पापी हुआ। मैं तो सभी पाप को वापस पानी बना देता हूं तथा भूमि पर गिरा देता हूं। इससे ही अन्न उपजता है। इसे ही मनुष्य खाता है। उस अन्न में जो अन्न जिस मानसिक अवस्था से उगाया जाता है तथा जिस वृत्ति से प्राप्त किया जाता है तथा जिस मानसिक स्थिति में खाया जाता है उसी के आधार पर मानव की मानसिकता बनती है। यही वजह है कि कहा जाता है कि ‘जैसा खाए अन्न, वैसा बनता मन।’ जिस वृत्ति से अन्न हासिल किया जाता है तथा जिस मानसिक स्थिति में खाया जाता है, वैसी ही सोच मनुष्य की बन जाती है। ऐसे में हमेशा भोजन शांत रहकर ही ग्रहण करना चाहिए। अन्न जिस धन से क्रय किया जाए वह धन भी मेहनत का होना चाहिए।