पंचांग में कुछ समय ऐसा भी होता है, जिसमें कोई भी मंगल कार्य करना निषिद्ध माना जाता है। काम करने पर अनिष्ट की आशंका रहती है। ऐसे निषिद्ध समय को \’भद्रा\’ कहते हैं।
ज्योतिष शास्त्र में तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण के स्पष्ट मान आदि को पंचांग कहा जाता है। कोई भी मंगल कार्य करने से पहले पंचांग का अध्ययन करके शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। पंचांग में कुछ समय या अवधि ऐसी भी होती है जिसमें कोई भी मंगल कार्य करना निषिद्ध माना जाता है अन्यथा इसके करने से अनिष्ट होने की संभावना रहती है। ऐसा ही निषिद्ध समय है \’भद्रा\’।
भद्रा का स्वरूप
भद्रा का स्वरूप अत्यंत विकराल बताया गया है। ब्रह्मा जी के आदेश से भद्रा, काल के एक अंश के रूप में विराजमान रहती है। अपनी उपेक्षा या अपमान करने वालों के कार्यों में विघ्न पैदा करके विपरीत परिणाम देती है। यही कारण है कि विवाह, गृह प्रवेश, कृषि, उद्योग, रक्षाबंधन, होलिका दहन, दाह कर्म जैसे कार्य भद्रा के दौरान नहीं किए जाते हैं।
भद्रा के प्रकार
मुहूर्त ग्रंथ के अनुसार शुक्ल पक्ष की भद्रा बृश्चिकी तथा कृष्ण पक्ष की भद्रा सर्पिणी कहलाती है। बृश्चिकी भद्रा के पुच्छ भाग में एवं सर्पिणी भद्रा के मुख भाग में किसी प्रकार का मंगल कार्य नहीं करना चाहिए। महर्षि भृगु की संहिता में कहा गया है कि सोमवार और शुक्रवार की भद्रा कल्याणकारी, गुरुवार की पुण्यकारी, शनिवार की बृश्चिकी और मंगलवार, बुधवार तथा रविवार की भद्रा भद्रिका होती है। इसलिए अगर सोमवार, गुरुवार एवं शुक्रवार के दिन भद्रा हो तो उसका दोष नहीं होता है।
कहां-कब होती भद्रा
माना जाता है कि भद्रा स्वर्ग लोक, पाताल लोक तथा पृथ्वी लोक के लोगों को सुख-दुख का अनुभव कराती है। जब चंद्रमा मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशि में होते हैं तब भद्रा स्वर्ग लोक में रहती है। चंद्रमा के कुंभ, मीन, कर्क और सिंह राशि में होने पर भद्रा पृथ्वी लोक में तथा चंद्रमा के कन्या, तुला, धनु एवं मकर राशि में होने पर भद्रा पाताल लोक में निवास करती है।
किसी भी मुहूर्त काल में भद्रा का वास पांच घटी मुख में, दो घटी कंठ में, ग्यारह घटी हृदय में, चार घटी नाभि में, पांच घटी कमर में तथा तीन घटी पुच्छ में होता है। इस स्थिति में भद्रा क्रमश: कार्य, धन, प्राण आदि को नुकसान पहुंचाती है। पुच्छ में भद्रा का प्रभाव मंगलकारी होने से विजय और कार्यसिद्धि दायक होता है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी, पूर्णिमा के पूर्वार्ध, चतुर्थी एवं एकादशी के उत्तरार्ध में तथा कृष्ण पक्ष की तृतीया, दशमी के उत्तराद्र्ध, सप्तमी और चतुर्थी के पूर्वार्ध में भद्रा का वास रहता है।