सनातन धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्व है। वैदिक पंचांग के अनुसार इस बार पितृ पक्ष की शुरुआत 07 सितंबर से हुई है और 21 सितंबर को समापन होगा। फल्गु नदी तट पर पिंडदान करना महत्वपूर्ण माना गया है। यही पर माता सीता ने राजा दशरथ का पिंडदान किया। ऐसे में चलिए जानते हैं इससे जुड़ी कथा के बारे में।
हर वर्ष आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पितृ पक्ष मनाया जाता है। यह समय अपने पूर्वजों को याद करने, उनका आशीर्वाद लेने और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का होता है।
इस दौरान तीन पीढ़ियों के पितरों के लिए तर्पण और पिंडदान किया जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार, इस पुण्यकर्म से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है और परिवार पर पितरों की कृपा बनी रहती है। उनके आशीर्वाद से जीवन में सुख, समृद्धि और वंश वृद्धि होती है।
विशेष रूप से गया में पितरों का तर्पण करना अत्यंत शुभ माना जाता है। क्योंकि यहां किए गए तर्पण से पूर्वजों को तत्क्षण मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए पितृ पक्ष में देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु गया आते हैं और अपने पितरों के लिए पिंडदान करते हैं।
भगवान श्रीराम और पिता दशरथ का पिंडदान
धार्मिक कथाओं के अनुसार, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने जीवन में अनेक कठिनाइयां देखीं। राज सिंहासन पर बैठने से ठीक पहले उन्हें चौदह वर्षों का वनवास मिला। पिता के वचन का पालन करने के लिए श्रीराम ने सिंहासन त्यागकर वनवास को चुना। इस दौरान पिता दशरथ पुत्रवियोग से अत्यंत दुखी हुए और स्वर्ग सिधार गए। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को अयोध्या का राजा बनते देखें।
राजा दशरथ को उनके पुत्र भरत और शत्रुघ्न ने मुखाग्नि दी। वन में होने के कारण श्रीराम तुरंत अयोध्या लौट नहीं पाए, फिर भी उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अपने पिता का पिंडदान गया के फल्गु नदी तट पर किया।
रामायण का विवरण
वाल्मीकि रामायण में एक अत्यंत भावुक प्रसंग मिलता है। जब वनवास के दौरान जब भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण जी गया पहुंचे, उस समय पितृ पक्ष चल रहा था। वहां एक ब्राह्मण ने श्राद्ध की सामग्री जुटाने को कहा। श्री राम और लक्ष्मण सामग्री लाने चले गए, लेकिन उन्हें बहुत देर हो गई। ब्राह्मण देव ने माता सीता से पिंडदान करने का आग्रह किया पहले तो माता सीता असमंजस में थीं, तभी स्वर्गीय महाराज दशरथ ने दिव्य रूप में दर्शन देकर उनसे अपने हाथों से पिंडदान की इच्छा जताई।
बालू से बनाया पिंड
समय की गंभीरता को समझते हुए माता सीता ने फल्गु नदी के किनारे बालू से पिंड बनाया और वटवृक्ष, केतकी पुष्प, फल्गु नदी और एक गौ को साक्षी मानकर पिंडदान किया। इस पवित्र कर्म से राजा दशरथ की आत्मा संतुष्ट हुई और उन्होंने माता सीता को आशीर्वाद दिया। जब श्री राम लौटे और यह सुना, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि बिना सामग्री और बिना पुत्र के श्राद्ध कैसे संभव है। तभी वटवृक्ष और अन्य साक्षियों ने माता सीता के इस पवित्र कार्य की गवाही दी।
गया और फल्गु नदी का विशेष महत्व
गया का फल्गु नदी तट भारतीय संस्कृति और धर्म में अत्यंत पवित्र स्थान माना जाता है। पितृ पक्ष में यहाँ पितरों का तर्पण और पिंडदान करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। मान्यता है कि इस पवित्र भूमि और नदी के सहारे किए गए तर्पण से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है और उनके आशीर्वाद से परिवार में सुख, सौभाग्य और समृद्धि बनी रहती है।
इस पवित्रता का आधार भगवान श्रीराम और माता सीता की कथा भी है। वनवास के दौरान माता सीता ने फल्गु नदी के किनारे अपने हाथों से पिंडदान किया। वटवृक्ष, केतकी पुष्प, फल्गु नदी और गौ को साक्षी मानकर यह कार्य किया गया। इस कर्म से राजा दशरथ की आत्मा संतुष्ट हुई और आशीर्वाद दिया। गया में पिंडदान केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। श्रद्धा और भक्ति के साथ किया गया तर्पण पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का प्रतीक है।