महाभारत और गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने कहा था कि हे अर्जुन मन की मलिनता मनुष्य को पुण्य और दैवी संस्कारों से दूर ले जाती है।
वह व्यक्ति कभी भी ना अपने बारे में और ना दूसरों के बारे में हितकारी हो सकता है। स्वच्छता या शुद्धि किसी भी चीज की असली पहचान होती है।
मन, बुद्धि, कर्म ये तीनों ही चीजें स्वच्छता और मलिनता के हिसाब से ही चलते है क्योंकि जहां मन में स्वच्छता होती है बुद्धि उसका सही निर्णय करती है और जब बुद्धि सही निर्णय करती है तो कर्म श्रेष्ठ, सुखदायी और परोकारी होता है।
परन्तु जब मलिनता का भाव होता है तो मन में प्रत्येक उठने वाले विचार स्वच्छता के बजाए मलिनता और गलत चीजों के सन्दर्भ में ज्यादा प्रभावशाली होते है उस वक्त बुद्धि निर्णय देते समय मलिनता के सामने घुटने टेक देती है और जो कर्म होता है वह गलत, दुखदायी और अनिष्ठकारी होता है।
फिर ऐसे ही कर्मों से बनने वाले संस्कार आत्मा पर प्रभावी होते है। जो मनुष्य की सोच व कर्म आसुरी प्रवृत्ति की श्रेणी वाला होता है वह कभी भी अच्छे कर्मों के बारे में नहीं सोच सकता है। ऐसे ही स्वभाव वाले लोग दूसरों को हमेशा कष्ट देकर पाप के भागीदार बनते है।
आत्मा और मन की शुद्धि मनुष्य के जीवन का दर्पण है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा था कि हे अर्जुन मन की मलिनता मनुष्य को पुण्य और दैवी संस्कारों से दूर ले जाती है।
वह व्यक्ति कभी भी ना अपने बारे में और ना दूसरों के बारे में हितकारी हो सकता है। समझें सही और गलत में भेद स्वच्छता का दर्पण मनुष्यात्माओं को उज्जवल भविष्य की रोशनी और सही रास्ता दिखाने का आधार होता है। जीवन का सम्पूर्ण सत्य है कि इस पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन इन्हीं उद्देश्यों के लिए हुआ है।
युगों का विभाजन भी ऐसे ही भावों के आधार हुआ है। आज के युग में यह सबसे बड़ी चुनौती है कि इस मलिनता वाले सुनामी में खुद को कैसे स्वच्छ रखें क्योंकि आज के युग में हवा से लेकर पानी और वातावरण चारों तरफ अंधविश्वास, अश्लीलता, अज्ञान, अंधकार, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद की आंधी से प्रभावित है।
व्यक्ति सदमार्ग पर और स्वच्छता के मार्ग पर चलना चाहते हुए भी असमर्थ है। चारों से बहने वाला तूफान श्रेष्ठता के बजाए अनिष्ठकारी वेग के रूप में ज्यादा है। कुछ ऐसे लोग है जो इस रास्ते पर डटकर मुकाबला करते हुए चल रहे हैं परन्तु ऐसे लोगों की तादाद बहुत कम है। जाहिर सी बात है कि जो लोग ऐसे पथ के पथिक हैं उनके रास्तें में अड़चने और मुश्किलों का अम्बार है।
जिससे देखकर लोगों को भ्रम हो जाता है कि आखिर यह मार्ग सही है या गलत है क्योंकि बुराइयों और मलिनता के बहाव में बहने वाला हर व्यक्ति अपने को सही और बेहतर बताने के लिए लगा रहता है। पुण्य को बनाएं जीवन का आधार भले ही आडम्बर और व्यर्थ कर्मों के साथ कुछ समय के लिए लोग खुद को सही मानते है परन्तु सत्य और पुण्य कर्म मनुष्य को हमेशा प्रभावित करते रहते हैं। यही वजह है कि विश्व में अपार धन दौलत वाले लोग भी आनन्द, स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए प्रयासरत है।
सुख और वैभव पर आसीन लोगों में आंतरिक स्तर पर घटने वाली घटना समय समय पर परिवर्तन की घंटी बजाती रहती है। परन्तु अनिष्टकारी कर्मों की इतनी प्रबलता रहती है कि वह दबकर रह जाता है। ऐसे में जरूरी है कि हम आत्मा और मन की स्वच्छता के लिए पुण्य कर्म करें। पुण्य कर्म से ही हम सुखी होंगे और समाज को इसका लाभ मिलेगा। स्वच्छता प्रत्येक आत्मा का शाश्वत मूल्य है।
इसलिए हर इंसान इसकी तलाश में रहता है। भले ही वह गन्दगी में रहता हो, परन्तु स्वच्छता उसे पसन्द आती है। इसलिए हमें अपने कर्मों, संकल्पों पर ध्यान देने की जरूरत है। मन के साथ अपने तन को भी बनाइए शुद्ध मन स्वस्थ और स्वच्छ हो तो शरीर उसी प्रकार संचालित होता है।
परन्तु मन को स्वच्छ और स्वस्थ रखने के लिए शरीर का स्वस्थ होना भी जरूरी है। इसमें खान पान, व्यायाम और योग शामिल है। जब व्यक्ति शरीर से स्वस्थ होता है तो मन प्रफुल्लित रहता है। इसलिए प्रात: उठें, ईश्वर का ध्यान करें, शुद्ध एवं शाकाहारी भोजन लें, योग के साथ राजयोग करें।
योग से शरीर और मन को स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन आत्मा की स्वच्छता के लिए राजयोग जरूरी है। राजयोग अर्थात आत्मा का परमात्मा से मिलन। इसके लिए जरूरी है कि ध्यानाभ्यास किया जाए। ऐसा नहीं है कि ध्यानाभ्यास केवल बैठकर एक निश्चित समय पर ही करना जरूरी है। परन्तु यह हर समय किया जा सकता है। मन की स्वच्छता के लिए लगातार प्रयास करते रहने की जरूरत है। हमेशा मन पर नजर रखने की आवश्यकता है ताकि मन की समस्याओं के अम्बार को रोका जा सके।
यही एक प्रक्रिया है कि हम मन और आत्मा को स्वच्छ और स्वस्थ बना सकते हैं। इससे ही मनुष्य का सही विकास होगा और हम एक बेहतर कल की ओर अग्रसर होंगे। योग से आएगी आत्मा में स्वच्छता आत्मा और मन की शुद्धि के लिए लगातार प्रयास करने की जरूरत है।
इसके लिए हमें अपनी दिनचर्या से लेकर सोच और कर्म पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। जैसे सूर्य की रोशनी पडऩे से सभी प्रकार के कीचड़ सूख जाते हैं ऐसे ही परमात्मा अर्थात ईश्वरीय सान्निध्य से पडऩे वाली ज्ञान और अध्यात्म की किरणों से विकारों रूपी कीचड़ सूखने लगते है। योग को अग्रि भी कहा गया है अर्थात जब परमात्मा का स्मरण अथवा ध्यान करते हैं तो उस समय परमात्मा से मिलने वाली शक्ति अग्नि के रूप में हमारे अन्दर की अस्वच्छता को जलाकर भस्म कर देती है।
फिर आत्मा में निखार आ जाती है और वह चमकने लगती है। मन में भी शुद्ध और श्रेष्ठ संकल्पों का प्रवास होने लगता है। योग शरीर और आत्मा दोनों के लिए लाभकारी है क्योंकि जब शरीर स्वस्थ रहेगा तभी हम पूर्ण रूप से मन को भी स्वस्थ रखने में कामयाब होंगे।