जब हनुमान जी श्रीरामचंद्र जी की सुग्रीव से मित्रता कराते हैं, तब सुग्रीव अपना दुख, अपनी असमर्थता, अपने हृदय की हर बात भगवान के सामने निष्कपट भाव से रख देता है। सुग्रीव की निखालिसता से प्रभु गदगद हो जाते हैं। तब सुग्रीव को धीरज बंधाते हुए भगवान श्रीराम प्रतिज्ञा करते हैं :
सुनु सुग्रीव मारिहउं बालिहि एकहिं बान।…
‘‘सुग्रीव! मैं एक ही बाण से बालि का वध करूंगा। तुम किष्किन्धापुरी जाकर बालि को चुनौती दो।’’
सुग्रीव आश्चर्य से भगवान का मुंह देखने लगे, बोले, ‘‘प्रभो! बालि को आप मारेंगे या मैं?’’
भगवान बोले, ‘‘मैं मारूंगा।’’
‘‘तो फिर मुझे क्यों भेज रहे हैं?’’
‘‘लड़ोगे तुम और मारूंगा मैं।’’
भगवान का संकेत है कि ‘पुरुषार्थ तो जीव को करना है परंतु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है।’
लक्ष्मण जी ने भगवान श्री राम से पूछा, ‘‘प्रभो! सुग्रीव की सारी कथा सुनकर तो यही लगता है कि भागना ही उसका चरित्र है। आपने क्या सोचकर उससे मित्रता की है?’’
राम जी हंसकर बोले, ‘‘लक्ष्मण! उसके दूसरे पक्ष को भी तो देखो। तुम्हें लगता है कि सुग्रीव दुर्बल है और बालि बलवान है पर जब सुग्रीव भागा और बालि ने उसका पीछा किया तो वह सुग्रीव को नहीं पकड़ सका। भागने की ऐसी कला कि अभिमानरूपी बालि हमें बंदी न बना सके और सुग्रीव पता लगाने की कला में भी कितना निपुण और विलक्षण है! उसने पता लगा लिया कि बालि अन्य सभी जगह तो जा सकता है परंतु ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं जा सकता। सीताजी का पता लगाने के लिए इससे बढ़कर उपयुक्त पात्र दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।’’
जब सुग्रीव बालि से हारकर आया तो भगवान राम ने उसे माला पहनाई। लक्ष्मण जी ने भगवान श्रीराम से कहा, ‘‘आपने तो सृष्टि का नियम ही बदल दिया। जीतने वाले को माला पहनाते तो देखा है पर हारने वाले को माला…!’’
प्रभु मुस्कराए और बोले, ‘‘संसार में तो जीतने वाले को ही सम्मान दिया जाता है परंतु मेरे यहां जो हार जाता है, उसे ही मैं माला पहनाता हूं।’’
भगवान राम का अभिप्राय: यह है कि सुग्रीव को अपनी असमर्थताओं का भलीभांति बोध है। कुछ लोग असमर्थता की अनुभूति के बाद अपने जीवन से हतोत्साहित हो जाते हैं पर जो लोग स्वयं को असमर्थ जानकर सर्वसमर्थ भगवान व सदगुरु की संपूर्ण शरणागति स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें जीवन की चरम सार्थकता की उपलब्धि हो जाती है।
लक्ष्मण जी पूछते हैं ‘‘महाराज! नवधा भक्ति में से कौन-कौन-सी भक्ति आपको सुग्रीव में दिखाई दे रही है।’’
प्रभु ने कहा, ‘‘प्रथम भी दिखाई दे रही है और नौवीं भी-प्रथम भति संतन्ह कर संगा। हनुमानजी जैसे संत इन्हें प्राप्त हैं। नवम सरल सब सन छलहीना। अंत:करण में सरलता और निश्छलता है। अपनी आत्मकथा सुनाते समय सुग्रीव ने अपने भागने को, अपनी पराजय को, अपनी दुर्बलता को कहीं भी छिपाने की चेष्टा नहीं की।’’
सुग्रीव के चरित्र का एक अन्य श्रेष्ठ पक्ष है ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करना। वहां ऋषि लोग मूक (मौन) होकर निवास करते थे। ऋष्यमूक पर्वत पर बालि नहीं आ सकता था। सुग्रीव जब उस पर्वत से नीचे उतर आता है तो उसे बालि का डर बना रहता था। यहां पर संकेत है कि जब तक हम महापुरुषों के सत्संगरूपी ऋष्यमूक पर्वत पर बैठते हैं, सत्संग से प्राप्त ज्ञान का आदर करते हैं, तब तक सब ठीक रहता है परंतु ज्यों ही सत्संग के उच्च विचारों से मन नीचे आता है तो फिर से अभिमानरूपी बालि का भय बना रहता है।
हनुमान जी ने बालि का नहीं सुग्रीव का साथ दिया। हनुमान जी शंकर जी के अंशावतार हैं और भगवान शंकर मूर्तमान विश्वास हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन में चाहे सब चला जाए पर विश्वास न जाए। जिसने विश्वास खो दिया, निष्ठा खो दी उसने सब कुछ खो दिया। सब खोने के बाद भी जिसने भगवान और सद्गुरु के प्रति विश्वास को साथ ले लिया, उसका सब कुछ संजोया हुआ है।