हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध महाकवि वाल्मीकि ने रामायण की रचना के पूर्व नारद मुनि से पूछा, नायक कौन होता है? उन्होंने पूँछा की इस जगत में ऐसा कोई व्यक्ति है, जो सद्गुणी होने के साथ में शक्तिशाली,मर्यादा में रहने वाला , सत्यवादी, दृढ़प्रतिज्ञ और करुणावान भी हो? साथ ही साथ ऐसा भी पूँछा की असाधारण चरित्र का धनी, प्रबल उत्साही, सबके कल्याण का इच्छुक, बुद्धिमान, किसी भी संदेह से परे, सक्षम और मनोरम हो? क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो आत्म-संतुष्ट, क्रोध को वश में करने वाला, ईर्ष्यारहित और अतिसाहसी हो? वस्तुत: नारद किसी ऐसे नायक की खोज में थे, जो सभी गुणों से पूर्ण और समस्त दोषों से परे हो.
महाकवि वाल्मीकि जी के द्वारा पूंछे गए इन प्रश्नों को सुनते ही नारद मुनि समझ गए की वह कौन हैं जिनके पास ये सब गुण है , नारद अपने अंत:करण में झांकने लगे और खुद को इस प्रश्न का उत्तर उचित ढंग से प्रस्तुत करने के लिए तैयार करने लगे. नारद के हृदय में उनसे संबंधित अनेकानेक विचार उत्पन्न् होने लगे जो सारे गुणों और विशेषताओं के अथाह सागर थे.
नारद मुनि ने ध्यान किया और उसके बाद अपने नेत्रों को खोलते हुए उन्होंने वाल्मीकि जी से कहा कि वे जिस नायक की खोज में हैं, जो इन सभी गुणों से परिपूर्ण है, वे अन्य कोई नहीं है वे स्वयं भगवान श्रीराम ही हैं.
आपने देखा ही होगा की इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन काल में किसी नायक की खोज में रहता है, जिसे वह पूज सके और उसका सहारा ले सके .वयक्ति के द्वारा उस सर्वशक्तिमान की आराधना करना पूजन करना इन सभी का अर्थ है कि उस इष्ट की छवि को मन में पूरी तरह से बसा लेना और नित्य अपने आदर्श नायक के पदचिह्नों पर चलने का प्रयत्न करना.
मानव जीवन के लिए सच्ची सीख –
आज की इस दुनियाँ में कुछ लोग केवल बाह्य-सौंदर्य को देखकर प्रशन्न रहते है .वे व्यक्ति के मन, और विचारों को नहीं देखते ,शारीरिक सुंदरता में ही रम जाते है. जो हमारी भूल है .जीवन में तो प्रधानता शुद्ध मन और अच्छे विचारों की है . यह तन तो एक न एक दिन नष्ट हो जाता है पर विचार की प्रधानता तो बनी रहती है .वह किसी न किसी रूप में झलकती है.