विष्णु के सातवें अवतार श्री राम को शांतचित्त, गंभीर, सहिष्णु और धैर्यवान माना जाता है। दिव्य शक्तियों के होते हुए भी उन्होंने मानव शरीर में जन्म लिया था और इसलिए मानवीय सीमाएं उन पर भी लागू होती थीं। मर्यादा पुरुषोत्तम होते हुए भी सब कुछ कर सकने में सक्षम होते हुए भी भगवान राम को कई मौकों पर अपने क्रोध को प्रकट करना पड़ा। जानते हैं कुछ ऐसे ही प्रसंगों के बारे में.
सीता स्वयंवर के दौरान परशुराम से विवाद होने पर
सीता स्वयंवर के लिए राजा जनक ने प्रतीज्ञा की थी कि जो भी भगवान शिव के धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, उसी वीर के साथ सीता की शादी की जाएगी। सभा में मौजूद कोई राजा प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर, धनुष को उठा ही नहीं पाया। जब राजा जनक ने उलाहना देते हुए कहा कि क्या कोई क्षत्रिय ऐसा नहीं है, जो इस धनुष को उठा सके। तब श्रीराम ने धनुष उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इस दौरान धनुष टूट गया। उसकी तीव्र गर्जना को सुनकर शिव भक्त परशुराम को इसका पता चल गया।
वह क्रोध में आकर राजा जनक की सभा में पहुंच जाते हैं। तब वहां लक्ष्मण के साथ उनका वाद-विवाद होने लगता है। बात बढ़ने पर मर्यादा पुरुषोत्तम भी क्रोध में आकर अपने धनुष पर दिव्यास्त्र चढ़ाते हैं। तब परशुराम जी को श्री राम के विष्णु अवतार होने का भान होता है तथा वे स्वयं उन्हें शांत हो जाने के लिए मनाने लगते हैं।
समुद्र के मार्ग न देने पर क्रोध
सीता को लंका से वापस लाने के लिए रावण से युद्ध करना आवश्यक था और इसके लिए समुद्र को पार करना पड़ता। इसके लिए श्री राम ने समुद्र से अपनी लहरों को शांत करने का अनुरोध किया, ताकि उस पर सेतु का निर्माण किया जा सके। उन्होंने तीन दिनों तक समुद्र देवता से प्रार्थना की, लेकिन कोई नतीजा न निकलता देखकर वह क्रोधित हो गए।
तब राम ने कहा- बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥ यानी तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती। उन्होंने लक्ष्मण से कहा- धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूं। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति की बात अच्छी नहीं लगती है। उनके ऐसा निश्चय करते ही समुद्र देवता थर-थर कांपने लगते हैं तथा प्रभु श्री राम से शांत होने की प्रार्थना करते हैं।
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सुग्रीव की प्रतिज्ञा भूल जाने पर
बालि को मारने के बाद श्री राम ने सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य सौंप दिया। इसके बदले में सुग्रीव ने सीता जी के खोज अभियान में सहायता करने का वचन दिया। मगर, भोग-विलास में लिप्त हो चुके सुग्रीव अपना वचन भूल बैठे। तब क्रोधित श्रीराम ने लक्ष्मण को अपना दूत बना कर सुग्रीव के पास भेजा, ताकि उन्हें उनके वचन की याद दिलाई जा सके। लक्ष्मण सुग्रीव के पास पहुंचते हैं और उन्हें भोग विलास में लिप्त देखकर क्रोधित हो जाते हैं। तत्पश्चात सुग्रीव अपने श्रेष्ठतम सेनानायक हनुमान को श्री राम की सहायता के लिए नियुक्त करते हैं।
इंद्र पुत्र काकासुर पर ब्रह्मास्त्र संधान
वनवास काल में चित्रकूट प्रवास के दौरान इंद्र का पुत्र काकासुर सीता माती की गरिमा व मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है। इस पर क्रोधित हुए राम ने तृण को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने का निश्चय किया। काकासुर ने तीनों लोकों में अपनी रक्षा की प्रार्थना की, लेकिन कहीं से मदद नहीं मिलने पर वह श्रीराम के चरणों में लोट जाता है।
तब राम ने कहा कि ब्रह्मास्त्र निष्फल नहीं हो सकता है, और उन्होंने काकासुर की दाईं आंख पर प्रहार किया। इससे काकासुर के प्राण तो बच गए, लेकिन उसकी दाईं आंख में दोष हो गया। मान्यता है कि इसी कारण आज भी कौवे की दाईं आंख में दोष पाया जाता है।