भूलकर भी नवरात्रि न करें कुलदेवी की उपेक्षा, जानिए पूजा का महत्व

पूर्वजों या परिवार के वरिष्ठों ने उपयुक्त स्वजनों को, खासतौर पर स्त्रियों को मृत्यु के बाद पूजना शुरू किया, ताकि वे दिवंगत आत्माएं कुल की रक्षा करती रहें। ऊपरी हवा, अदृश्य शक्तियों से रक्षा और जीवित स्वजनों के प्रयोजन पूरे होते रहें। साथ ही दिवंगत आत्माएं अपने वंशजों का सहयोग और संरक्षण भी करती रहें। इन उद्देश्यों के साथ पूर्वजों की पूजा का सिलसिला चला भी, किंतु कालांतर में आश्विन मास की नवरात्र में सातवें या आठवें दिन को कुलदेवी की पूजा के लिए सुरक्षित कर दिया गया। पारिवारिक उत्सवों और संस्कारों में भी कुलदेवी की पूजा होने लगी।

कुलदेवी की पूजा का महत्व

कुल देवता (भैरव) और कुलदेवी की पूजा का उद्धेश्य नकारात्मक शक्तियों या स्थितियों से रक्षा के साथ कामों या उत्सवों के निर्विघ्न समापन के लिए भी है। शुरू होने के बाद किसी आकस्मिक अवसर पर, जगह, व्यवसाय और धर्म बदलने,आक्रांताओं का भय होने, जान-पहचान के लोगों के मरने लगने, विजातीय भाव पनपने और अप्रत्याशित संकट आने पर भी लोग कुलदेवी की पूजा करने लगे। इनमें पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं। कुछ अपने को आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इन पर ध्यान नहीं दिया।

सुरक्षा का आवरण बनाती हैं कुलदेवी
कुल देवता या देवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ समय तक तो खास अंतर नहीं दिखाई देता। धीरे-धीरे सुरक्षा चक्र हटने पर परिवार में दुर्घटनाओं, वायवीय बाधाओं का प्रवेश शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है। संस्कारों का क्षय, नैतिक पतन, कलह, उपद्रव, अशांति शुरू हो जाती है। खोजने पर भी कारण समझ नहीं आता। ज्योतिष आदि से कारण जानना मुश्किल होता है। भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है। कुल देवी घर में सुरक्षा का आवरण बनाती हैं, जो किसी भी बाहरी बाधा और नकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश को रोकता है।

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