‘भवानीशंकरौ वंदे’, भवानी और शंकर की हम वंदना करते हैं। श्रद्धा विश्वास रूपिणौ, अर्थात श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का नाम शंकर है। श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक विग्रह (मूर्ति) हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते हैं, जल व बेलपत्र चढ़ाते हैं, आरती करते हैं।
शिव लिंग का अर्थ
यह सारा विश्व ही भगवान है। शंकर का गोल पिंड बताता है कि विश्व-ब्रह्मांड गोल है। धरती माता गोल है। इसे हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें, जो हम अपने लिए चाहते हैं। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसका सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
शिव का वाहन वृषभ/बैल ‘नंदी’ शक्ति का पुंज है। सौम्य-सात्विक बैल शक्ति का प्रतीक है, हिम्मत का प्रतीक है। शिव के सिर पर विराजमान चंद्रमा शांति व संतुलन का प्रतीक है। चंद्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है। शंकर भक्त का मन सदैव चंद्रमा की भांति प्रफुल्लित और उसी के समान खिला नि:शंक होता है।
सिर से गंगा की जलधारा
सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है। गंगा जी यहां ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं। महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है। मां गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं। शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है। महान बौद्धिक क्रांतियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है, जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श समाए हुए हों। वही ब्रह्मज्ञान को धारण कर उसे लोकहितार्थ प्रवाहित कर सकता है।
शिव जी का तीसरा नेत्र यानी ज्ञानचक्षु दूरदर्शी विवेकशीलता का प्रतीक है, जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। यह तृतीय नेत्र स्त्रष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।
शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न, विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित-प्रफुल्लित जीवन जिए। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। यह पुकार-पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं। उनके हर शब्द में सत्यम शिवम की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध-सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है, अपना बना लेती है।
शिव का त्रिशूल ज्ञान, कर्म और भक्ति का प्रतीक है। लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला, साथ ही हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सकने वाला अस्त्र है त्रिशूल। यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।