आखिर भगवान श्रीराम के ही हाथों क्यों चुनी रावण ने अपनी मृत्यु

अगर रामायण के प्रमुुख पात्रों को याद किया जाए तो उसमें श्रीराम और हनुमान जी के नाम के बाद रावण का नाम आता है। रावण जिसने श्रीराम की अर्धांगिनी सीता का हरण किया था और उन्हें अपनी बनाना चाहता था। सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र रावण एक परम शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ , महापराक्रमी योद्धा, बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकांड विद्वान पंडित और महाज्ञानी था।

रावण के नाम का इस दुनिया में कभी दूसरा नहीं हुआ। इसके बारे में लगभग सभी लोग जानते हैं लेकिन रावण के पूर्व जन्मों की गाथा क्या है इसके बारे में शायद ही किसी को पता होगा। तो आइए जानते हैं रावण के पूर्व जन्म से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें-

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अपने पूर्व जन्म में रावण भगवान विष्णु का द्वारपाल था। इसके पीछे एक कथा भी प्रचलित है, जिसके अनुसार एक बार सनक, सनंदन आदि ऋषि भगवान विष्णु के दर्शन के लिए पधारे, लेकिन भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन सबको द्वार पर ही रोक दिया और उन्हें अंदर नहीं जाने दिया। कहने लगे कि अभी भगवान के विश्राम का समय है।

जिसके बाद में जय और विजय ने ऋषियों से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने कहा कि हमारा शाप खाली नहीं जा सकता। हां, इसमें यह बदलाव हो सकता है कि तुम हमेशा के लिए राक्षस नहीं रहोगे, लेकिन 3 जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना ही होगा और उसके बाद तुम पुन: इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। लेकिन इसके साथ एक और शर्त यह है कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी-स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना ज़रूरी होगा।

इस शाप के चलते भगवान विष्णु के इन द्वारपालों ने अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्म लिया। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था। उसके कारण पृथ्वी पाताल-लोक में डूब गई थी। पृथ्वी को जल से बाहर निकालने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा। इस अवतार में उन्होंने धरती पर से जल को हटाने का अथक कार्य किया। उनके इस कार्य में बार-बार हिरण्याक्ष विघ्न डालता था अत: अंत में श्रीविष्णु ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। उसके बाद धरती पुन: मनुष्यों के रहने लायक स्थान बन गई।

हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने तप करके ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था। वह जानता था कि इस वरदान के चलते मुझे कोई न आकाश में मार सकता है और न पाताल में। न दिन में और न रात में। न कोई देव, न राक्षस और न मनुष्य मार सकता है तो फिर चिंता किस बात की? यही सोचकर उसने खुद को ईश्वर घोषित कर दिया था।

भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने के कारण वह विष्णु विरोधी था। लेकिन जब उसे पता चला कि उसका पुत्र प्रहलाद विष्णुभक्त है तो उसने उसे मरवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन वह अपने पुत्र को नहीं मार सका। अंत में उसने एक खंभे में लात मारकर प्रहलाद से पूछा- ‘यदि तेरा भगवान सभी जगह है तो क्या इस खंभे में भी है?

खंभे में लात मारते ही खंभे से भगवान विष्णु नृसिंह रूप में प्रकट हुए, जो न देव थे और न राक्षस और न मनुष्य। वे अर्द्धमानव और अर्द्धपशु थे। उन्होंने संध्याकाल में हिरण्यकशिपु को अपनी जंघा पर बिठाकर उसका वध कर दिया।

वध होने के बाद ये दोनों भाई त्रेतायुग में रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और फिर श्रीविष्णु अवतार भगवान श्रीराम के हाथों मारे गए। अंत में वे तीसरे जन्म में द्वापर युग में शिशुपाल और दन्तवक्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए। इन दोनों का भी वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।

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