स्वामी शंकरदेव चैतन्य ब्रह्मचारी के अनुसार श्रावण मास एक दिव्य समय है जब आत्मा शिवत्व की ओर अग्रसर होती है। यह ब्रह्मांड के मौन आह्वान का काल है जिसमें सृष्टि शिवोहम के स्वर में तल्लीन हो जाती है। श्रावण (Sawan 2025) में गंगाजल का शिवलिंग पर गिरना जीवन का समर्पण है।
स्वामी शंकरदेव चैतन्य ब्रह्मचारी, (पीठाधीश्वर, धर्मसंघ शिक्षा मंडल)। श्रावण मास वह दिव्य निमिष है, जब काल की गति मंद की ओर पड़ जाती है और आत्मा शिवत्व होने लगता है। यह केवल पंचांग का अग्रसर एक महीना नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड के मौन आह्वान का काल है, जिसमें समस्त सृष्टि ‘शिवोहम’ के स्वर में तल्लीन हो जाती है। श्रावण वह समय है जब सृष्टि स्वयं को भूलकर सृजनकर्ता की ओर लौटना चाहती है।
यह ऋतु नहीं, ऋषियों की अनुभूति है। शिव का स्वरूप जहां सृष्टिकर्ता से भी परे है, वहीं श्रावण उस दिशा की यात्रा है जहां व्यक्ति स्वयं से परे जाकर शिव में समाहित हो सके। शिव कोई आकृति नहीं, एक अनुभव हैं, मौन में गूंजता हुआ, तप में प्रकट होता हुआ। श्रावण वह महाकालीन संदर्भ है जिसमें साधक अपने समस्त अस्तित्व को शिव के चरणों में समर्पित कर देता है।
जीवन का समर्पण
श्रावण का प्रत्येक सोमवार कोई तिथि नहीं, साधना का शिखर है। उस दिन जब गंगाजल शिवलिंग पर गिरता है, तो वह केवल जल नहीं जीवन का समर्पण होता है। यह उस चेतना की अभिव्यक्ति है जो जान गई है कि ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं। शिव कोई अलग सत्ता नहीं, दो नहीं, एक ही साधना के दो रूप हैं। श्रावण वह दर्पण है, जिसमें आत्मा स्वयं को शिवरूप में देख सकती है। वे आत्मा के भीतर सुप्त उस दिव्यता का नाम हैं, जिसे केवल श्रद्धा, तप और समर्पण से जगाया जा सकता है।
श्रावण उसी जागरण का काल है। श्रावण में केवल अभिषेक नहीं होता, भीतर की मलिनताओं का विसर्जन होता है। यह वह पल है जब मैं का आवरण हटता है और केवल ‘शिव’ शेष रह जाते हैं।