भगवत धर्म से आशय उस धर्म से है, जिसके उपास्य स्वयं भगवान हों। वहीं इस धर्म की प्राचीनता अनेक तरह से सिद्ध होती है। इसके साथ ही गुप्त सम्राट ‘परम भागवत’ की उपाधि से गौरव का अनुभव करते थे। उनके शिलालेखों में यह उपाधि का उल्लेख उनके नाम के साथ है। वहीं विक्रमपूर्व पहली और दूसरी शताब्दी में भागवत धर्म की व्यापकता और लोकप्रियता शिलालेखों से सिद्ध होती है। इसके अलावा ईसवी पूर्व पहली शताब्दी में क्षत्रप शोडाश (80-57 ई. पू.) मथुरा का अधिपति था। वहीं समकालीन एक शिलालेख का उल्लेख है कि वसु नामक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान) में भगवान वासुदेव के एक चतु:शाल मंदिर, तोरण तथा वेदिका (चौकी) की स्थापना की थी। इसके साथ ही मथुरा में कृष्ण के मंदिर के निर्माण का यह प्रथम उल्लेख है। उस युग में वासुदेव देवाधिदेव (अर्थात देवों के भी देव) माने जाते थे और उनके अनुयायी ‘भागवत’ नाम से मशहूर थे।
महर्षि पाणिनि के सूत्रों की समीक्षा भागवत धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए नि:संदिग्ध प्रमाण है। पाणिनि ने अपने सूत्रों में वासुदेव की भक्ति करने वाले व्यक्ति के अर्थ में न (अक) प्रत्यय का विधान किया है, जिससे वासुदेव भक्त (वासुदेवो भक्तिरस्य) के लिए ‘वासुदेवक’ शब्द निष्पन्न होता है। इस सूत्र के अनुशीलन से ‘वासुदेव’ का अर्थ असंदिग्ध रूप से परमात्मा ही होता है, वासुदेव नामक क्षत्रिय का पुत्र नहीं। महाभाष्य की टीका में कैयट का कहना है कि नित्य परमात्मा ‘वासुदेव’ शब्द से गृहीत किया गया है। काशिका इसी अर्थ की पुष्टि करती है (संज्ञैषा देवताविशेषस्य न क्षत्रियाख्या)। इसी परंपरा में ‘वासुदेव’ का अर्थ परमात्मा लिया गया है।
इसके अलावा पंतजलि के द्वारा ‘कंसवध’ तथा ‘बलिबंधन’ नाटकों के अभिनय का उल्लेख स्पष्टत: कृष्ण वासुदेव का ऐक्य ‘विष्णु’ के साथ सिद्ध कर रहा है।इसके अलावा इसे वेबर, कीथ, ग्रियर्सन आदि पाश्चात्य विद्वान भी मानते हैं। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि पाणिनि के युग में (ई.पू. छठी शती में) भागवत धर्म प्रतिष्ठित हो गया था। वहीं इतना ही नहीं, उस युग में देवों की प्रतिमा भी मंदिरों में या अन्यत्र स्थापित की जाती थी। इसके अलावा ऐसी परिस्थिति में पाणिनि से लगभग तीन सौ वर्ष पीछे चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार का यूनानी राजदूत मेगस्थनीज जब मथुरा तथा यमुना के साथ संबद्ध ‘सौरसेनाई’ (शौरसेन) नामक भारतीय जाति में ‘हेरिक्लीज’ नामक देवता की पूजा का उल्लेख करता है तो हमें आश्चर्य नहीं होता। वहीं ‘हेरिक्लीज’ शौर्य का प्रतिमान बनकर संकर्षण का द्योतक हो, चाहे कृष्ण का, उनकी पूजा भागवत धर्म का प्रचार तथा प्रसार का संशयरहित प्रमाण है।
Shree Ayodhya ji Shradhalu Seva Sansthan राम धाम दा पुरी सुहावन। लोक समस्त विदित अति पावन ।।