वेदों और पुराणों में भगवान शिव के सगुण रूप के होते हैं दर्शन!

भगवान शिव जिस पर्व को स्वयं उत्सव के रूप में मनाते हैं, उसे शिवरात्रि कहते हैं। चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शिव हैं। महाशिवरात्रि का महत्व अनेक कारणों से कहा गया है।

वेदों में एक ही तत्व को अनेक रूपों में ब्रह्म, परमात्मा, भगवान, ईश्वर तथा सदाशिव कहा गया है। वेदों व पुराणों में भगवान शिव के सगुण रूप के दर्शन होते हैं, जबकि शिव तत्व का वर्णन करना मनुष्य क्या, देवी-देवताओं के लिए भी शक्य नहीं है। वेद तो उस तत्व के लिए नेति-नेति कहकर मौन धारण कर लेते हैं। पुराण सगुण शिव के चरित्र का वर्णन-कथा के रूप में करते हुए यत्किंचिद् उनकी महिमा पर प्रकाश डालते हैं। भगवान शिव की अतिशय प्रिय रात्रि ही शिवरात्रि है। कहा गया है कि ‘पर्वोत्सवमयीह्येषा शिवरात्रि प्रशस्यते’ अर्थात भगवान शिव जिस पर्व को स्वयं उत्सव के रूप में मनाते हैं, उसे शिवरात्रि कहते हैं।

मां पार्वती रात्रि स्वरूपा हैं

चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शिव हैं। महाशिवरात्रि का महत्व अनेक कारणों से कहा गया है। ईशानसंहिता के अनुसार, इसी तिथि के मध्यरात्रि में ब्रह्मा एवं विष्णु के विवाद का शमन करने हेतु अनंत ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य हुआ था। शिवपुराण के अनुसार, इस तिथि को भूतभावन भगवान शिव का परिणय हिमालय की पुत्री पार्वती से हुआ था। स्कंदपुराण के अनुसार मां पार्वती रात्रि स्वरूपा हैं और भगवान शिव दिवा स्वरूप हैं। इसी रात्रि के समय भगवान शिव अपनी समस्त शक्तियों एवं गणों के साथ उत्सव मनाते हैं। अतः इस पर्व पर रात्रि जागरण की महिमा अतिविशिष्ट है। भगवती पार्वती को माया या प्रकृति कहा गया है, जबकि भगवान शंकर मायापति हैं। समस्त जगत उनका अवयव होने से वे सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं।

धर्मराज युधिष्ठिर ने एकबार भीष्मपितामह से शंकर जी के गुणों को जानने की जिज्ञासा की, तब भीष्मपितामह नें कहा था कि मैंने भगवान श्रीकृष्ण से शिव तत्व के विषय में पूछा था, उन्होंने कहा कि मैं पूर्णरूपेण महादेव के गुणों को कहने में असमर्थ हूं। वह सर्वगत होते हुए भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते। अतः जो जीव गर्भ, जन्म, वृद्धावस्था से युक्त हैं, वे भला उनके गुणों को कहां से बता सकते हैं।

अशक्तोऽहं गुणान् वक्तुं महादेवस्य धीमतः।

यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते॥

को हि शक्तो गुणान् वक्तुं देवदेवस्य धीमतः।

गर्भजन्मजरा युक्तो मर्त्यो मृत्युसमन्वितः॥

शिव जी के अवतार आदि शंकराचार्य

इस कलिकाल में भगवान शिवजी का अवतार आदि शंकराचार्य के रुप में पृथ्वीलोक पर धर्म संस्थापनार्थ हुआ था। सनातन धर्म के क्षीण होने पर मान्यता है कि धर्म की स्थापना हेतु भगवान शंकर, शंकराचार्य के रूप में अवतरित हुए थे और यह कहा गया है कि शंकरः शंकरः साक्षात्॥ ये भगवान शंकर के साक्षात अवतार हैं। इसका प्रमाण इनके शैशवावस्था से मिलने लगा था। जो 32 वर्ष की अवस्था तक ही वेद-वेदाङ्ग, उपनिषद् तथा अनेकों बड़े बड़े ग्रन्थ रच डाले और संपूर्ण भारत में भ्रमण करते हुए सनातन धर्म विरोधियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार प्रधान मठ स्थापित करके सनातन धर्म की रक्षा की।

शिव की अर्द्ध परिक्रमा का रहस्य

देवताओं की परिक्रमा के विषय में कहा गया है कि :

एकाचण्ड्या रवौसप्त, त्रिस्रः कुर्याद् विनायके।

हरौ चतस्रः कार्या शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा॥

अर्थात दुर्गा आदि देवियों की परिक्रमा एकबार, सूर्य की सात बार, गणेश जी की तीन बार, भगवान विष्णु की चार बार, जबकि भगवान शंकर की आधी परिक्रमा ही करनी चाहिए। दुर्गा जी एकमात्र शक्तिस्वरूपा हैं जैसा कि वह कहती हैं : ‘एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा’ अतः इनकी एक परिक्रमा, भगवान सूर्य सप्तरश्मि हैं, सप्ताश्व हैं, अतः सात परिक्रमा। गणेश जी गणाधिपति हैं, गण तीन तीन मात्राओं से ही निर्मित होता है, जो छंदशास्त्र में प्रसिद्ध है, अतः गणोश जी की तीन परिक्रमा तथा भगवान विष्णु चतुर्भुज हैं अतः चार परिक्रमा की जाती हैं। किंतु शंकर जी अर्धनारीश्वर हैं, अतएव आधी परिक्रमा ही मनीषियों द्वारा मान्य है। शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा। आधी परिक्रमा का कारण जलहरि का उल्लंघन न करना ही है। कहा जाता है कि गंधर्वराज पुष्पदंत ने इसका अतिक्रमण किया था, जिसका परिणाम हुआ कि वह गंधर्व पद से च्युत हो गया। बहुत काल पश्चात् जब वह शिवमहिम्नस्तोत्र की रचना करके महादेव की आराधना किया, तब उद्धार हुआ।

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